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Showing posts from January, 2017

चीर हरण

“सखी, आज इतनी उदास क्यों बैठी हो?” कृष्ण ने द्रोपदी के समीप बैठते हुए प्रश्न किया।  “सखा, आप सर्वत्र ज्ञाता है, फिर भी क्यों पूछते है?”, दुखित स्वर में द्रोपदी ने उत्तर दिया। कृष्ण के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने अपने दोनों हाथों से द्रोपदी के चेहरे हो थामा और स्नेह पूर्वक कहा, “यदि बात करोगी तो शायद मन हल्का हो जाए, इसलिए पूछा है।” “आपको नहीं लगता की मृत्युलोक में आज भी औरतों को अपना सम्मान नहीं मिला है? आज भी उन्हें प्रताड़ित एवं अपमानित किया जाता है। पुरुष वर्ग आज भी या तो दुशाशन बनकर चीर हरण करता है, या फिर भीष्म पितामह की तरह चुप चाप देखता रहता है। मेरी रक्षा को तो आप आ गए थे, पर अब इन्हें कोई क्यों नहीं बचाता? क्या इनकी रक्षा आपका दायित्व नहीं है? क्या इतिहास में कृष्ण सिर्फ एक द्रोपदी की लाज बचाने के लिए याद किए जाएंगे? जबकि आज हजारों लाखों द्रोपदीयां अपनी लाज बचाने की नाकाम कोशिश कर रही है। हर दिन सकड़ों द्रोपदी चीर हरण का शिकार होती है। क्या जगत नारायण श्री कृष्ण का उनके प्रति कोई दायित्व नहीं है? क्या उनकी नियति में चीर हरण ही लिखा है?”, कहते कहते द्रो

अंतर्द्वंद

“मैं जा रही हूँ”, कहते हुए उसने उठने का उपक्रम किया। मैंने हिम्मत करके उसकी कलाई पकड़ ली। हमारे 2 वर्ष पुराने रिश्ते में मैंने पहली बार उसकी कलाई पकड़ी थी। वह एकबारगी चौक गई, और जल्दी से अपना हाथ छुड़ा लिया। “क्या करते हो? कोई देख लेगा तो?”, उसकी आवाज़ में स्पष्ट कंपन था।  “मुझे किसी की परवाह नहीं है। मैं तुम्हें इस तरह जाने नहीं दूंगा। चलो मेरे साथ कलकत्ता चलो।“ मैंने भी अपनी कांपती आवाज़ में कहा। ऊपर से मैं बहुत हिम्मत दिखा रहा था, परंतु अंदर ही अंदर एक द्वंद्व चल रहा था। कहा ले जाऊंगा? कैसे रखूँगा? मेरी तो अभी नौकरी भी नहीं लगी है। रहने को अपना घर भी नहीं है, गाव के कुछ लोगों के साथ बासा में रहने वाला उसे कहाँ रखूँगा।