
यही शब्द निकल पाए थे उसके मुख से। कहना तो वह बहुत कुछ चाहता था. परंतु वो सब बातें उसके हृदय में ही रह गयी। वह जनता था की शायद यह उनकी आख़िरी मुलाकात हो। परंतु हालात ऐसे हो चुके थे कि उनके मध्य अलगाव अवश्यंभावी हो चूका था।
"तुम भी"
बस इतना ही कह पाई वह उत्तर में। उसके मन में भी ढेर सारी बातें घुमड़ रही थी। परंतु शायद दोनों के लिए हृदय से मुख का मार्ग बहुत दुर्गम हो चला था। उस मार्ग में उनके अहम ने कई रुकावटें पैदा कर दी थी।
अचानक रेल की सीटी बजी और तब दोनों को इस ख्याल ने मानो मन ही मन चौंकाया की बस, अब साथ छूटने की घड़ी आ गई थी। दोनों एक दूसरे को बहुत कुछ कहना चाहते थे, पर सिर्फ़ एक दूसरे से नज़रे चुराते रहे। जब गाड़ी धीरे धीरे सरकने लगी तब डबडबाई आँखों से प्लेटफॉर्म पर खड़े रेल को जाते देख वह होठों ही होठों में बुदबुदाया, "मैं तुमसे बहुत प्यार करता हु। रुक जाओ।"
यह जानते हुए भी की प्लेटफ़ार्म और इंजन के शोर में उसकी बुदबुदाहट सुनाई नहीं देगी, उसकी आशा भरी निगाहें धीरे धीरे दूर होती उस खिड़की को देख रही थी जिसपर वह बैठी थी।
जो उन निगाहों ने नहीं देखा था वह था एक और जोड़ी होठों का बुदबुदाना। "मुझे रोक लो। मैं तुम्हारे बिना कैसे जिऊँगी?" और अविरल बहते हुए आंसू। शायद उन आँखों के आंसू भी गाड़ी की सीटी का इंतज़ार कर रहे थे।
रेल अपनी रफ़्तार पकड़ प्लेटफ़ार्म से बहार निकल आई। दो जोड़ी भीगी आँखे अपने अपने टूटे हृदय के साथ अपनी अपनी दिशा में चल दिए थे। शायद कभी न मिलने के लिए। शायद.... या क्या पता जीवन के किसी और प्लेटफार्म पर फिर से मुलाकात हो जाये। और शायद वहाँ से आगे का सफ़र फिर एक साथ एक ही गाड़ी में हो। शायद... तब तक के लिए अलविदा....
विनय कुमार पाण्डेय
23 दिसंबर 2014
Comments