आज पहली बार इतने सारे बच्चों को अच्छे अच्छे कपड़े पहने हुए खिलखिलाते और दौड़ते भागते हुए देख उसे आश्चर्य हो रहा था। अपने अनाथालय में बाकी के २५ बच्चों के साथ रहते हुए वह ख़ुश थी। वह भी खेलती कूदती थी उनके साथ। स्कूल भी जाती थी। परंतु यहाँ के बच्चों की ख़ुशी और उसकी ख़ुशी में बहुत अंतर था। यहाँ के बच्चों की ख़ुशी में एक अनजानी सी बेतकल्लुफ़ सी भावना थी, जैसे उन्हें किसी चीज़ की चिंता ही ना हो। बस कुछ चाहिए तो अपनी माँ के पास पहुँच कर जिद करने लगते थे। उसकी माँ तो थी नहीं, अतः यह एहसास भी एक नया सा था, की कोई ऐसा भी हो सकता है जो आपकी नाजायज़ जिद पर भी आपको प्यार से देखे और आपकी उस जिद को पूरा करे। यह नन्हें नन्हें बच्चे क्या जाने की उसके पास माँ तो ना थी, पर माँ जैसी भी कोई नहीं थी। अनाथालय में उन बच्चों की देखभाल करने वाली दीदी की उम्र भी इतनी नहीं थी की उसे वह माँ जैसी समझ पाती। वह दीदी हमेशा इस उधेड़बुन में लगी रहती थी की सभी बच्चों के पालन पोषण का इंतजाम कैसे हो। अनाथालय में ख़ुशियाँ तो थी, परंतु कल की चिंता भी छाई रहती थी उन ख़ुशियों पर। उसे भी पता था दीदी की मज़बूरियों के बारे में। इसलिए वह या कोई और बच्चे किसी तरह की जिद नहीं करते थे। उन्हें पता था की दीदी जितना हो सकता है उतना उनके लिए कर रही है। अपनी छोटी से दुनिया में वे ख़ुश थे। आज तक कभी बाहर जाने का मौका नहीं मिला था। स्कूल भी जाते तो वह अधिकतर उनके जैसे ही बच्चे होते। उनकी दुनिया अपने जैसे बच्चों और दीदी के इर्द गिर्द ही समाई हुई थी।
आज पहली बार उन्हें किसी बड़े अनुष्ठान में बुलाया गया था। यहाँ होने वाली दुर्गा पूजा की शुरुआत उनके हाथों होनी थी। उन्हें पता भी नहीं था की मुख्य अतिथि क्या होता है, पर उन्हें मुख्य अतिथि बनाया गया था। देवी दुर्गा की विशाल प्रतिमा एवं मंडप की सजावट देखकर उनकी आँखें चौंधिया गयी थी। वहाँ मिले नाश्ते को खाते खाते ही उसने उन बच्चों को अपनी माँ से जिद करते हुए देखा। उनकी माँ द्वारा उस जिद को पूरा होते हुए देखा। फिर मन में एक कसक सी उठी की काश मेरी भी माँ होती। फिर मैं भी उसे कह कर अपने लिए अच्छे अच्छे कपड़े बनवाती, दुकानों में जा कर उन बच्चों की तरह कुछ चटपटा खाती। दौड़ धूप की वजह से ढीले हो गए अपने बालों के क्लिप को ठीक कराती।
यह सोचते सोचते वह मंडप की तरफ बढ़ी, मानो देवी से अपने लिए माँ माँगने जा रही हो। उसके मन में यही मंशा थी। परंतु वहाँ पहुँच कर, वह सिर्फ़ देवी के चरणों के पास बैठ गयी। पुजारी पूजा की तैयारियों में व्यस्त था। उसने पूछा, “क्या बात है बेटी, यहाँ क्यों बैठी हो?”
“कुछ नहीं, यूँ ही आकर बैठ गयी। अगर आपको आपत्ति हो तो मैं चली जाती हु।”
“नहीं बेटी, अभी पूजा शुरू कहा हुई है। और पूजा शुरू भी तो तुम्हें ही अपनी बाकी सहेलियों के साथ करना है। बैठो बैठो।”
कुछ देर तक अपने पाँव के अँगूठे से अदृश्य रेखाएँ खींचने के पश्चात उसने पुजारी से पूछा, “देवी दुर्गा की माँ कौन है?”
पुजारी अचानक पूछे गए ऐसे प्रश्न पर अचकचा गए। उन्हें एक छोटी सी बच्ची से ऐसे प्रश्न की आशा नहीं थी। उन्होंने प्रश्न को ठीक सुना है यह सुनिश्चित करने हेतु दुबारा पूछा। “क्या पूछा तुमने बेटी?”
“पंडित जी, मुझे देवी दुर्गा के बचपन के बारे में जानना है। उनकी माँ कौन थी, क्या ये भी अपनी माँ से जिद करती थी? इनकी माँ क्या उनकी जिद को पूरा करती थी? कृपा करके मुझे देवी के बचपन के बारे में बताये।”
पंडित जी ने कुछ क्षण विचार किया। आसपास की गतिविधियों उससे छुपी नहीं थी। प्रश्न करने के पीछे की मंशा को पंडित जी समझ गए थे।
“बेटी, देवी दुर्गा तो स्वयं जगतजननी है। वह आदि शक्ति का रूप है। उनकी कोई माँ नहीं, वह हम सबकी माँ है।”
“परंतु पंडितजी, क्या देवी को अपनी माँ की कमी का एहसास नहीं हुआ? वह तो देवी है, उनकी माँ क्यों नहीं है?”
“बेटी, देवी दुर्गा संपूर्ण ब्रह्मांड की जननी है। संपूर्ण सृष्टि की माँ है वो। उनसे ही सृष्टि की उत्पत्ति हुई है। उन्हें माँ की कमी नहीं, क्योंकि वह स्वयं माँ है। हम सबकी माँ, संपूर्ण जगत की माँ।”
इतना सुनकर उसकी आँखें चमक उठी। शायद उसे यह अच्छा लगा की वह अकेली नहीं है बिना माँ के। फिर उसकी आँखें माँ दुर्गा के वाहन पर पड़ी। एक और मासूम सा सवाल पंडित जी की और आया।
“देवी ने शेर ही क्यों चुना अपने वाहन के लिए?”
“बेटी, शेर प्रतिक है, हमारे अंदर के क्रोध और उन्माद का। देवी ने उस क्रोध और उन्माद को अपने वश में कर के, उसकी उर्जा को सृष्टि की भलाई के लिए प्रयोग में लाया। महिषासुर को मारने में देवी ने शेर रूपी उर्जा एवं शक्ति का भी उपयोग किया।”
“क्या देवी मेरी भी माँ है?” उसके प्रश्न पुनः मातृत्व पर लौट आए थे।
“हाँ पुत्री, वह तुम्हारी भी माता है।“ पंडित जी ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया।
“तो वह बाकी माताओं की तरह मुझे प्यार क्यों नहीं करती?”
“तुम्हें ऐसा क्यों लगता है की वो तुमसे स्नेह नहीं करती?”
“आप स्वयं देख लीजिए, यहाँ पर कैसे माताएँ अपने अपने बच्चों को अच्छा खाने और पहनने को देती है। मेरी माँ ऐसा क्यों नहीं करती?”
पंडित जी मुस्कराए, और उसके सर पर हाथ रखते हुए कहा, “पुत्री, ये सुंदर से दिखने वाले वस्त्र, ये खाने पीने की वस्तुएँ, यह सब तुम्हें आने वाले कल के लिए तैयार नहीं करेगा। तुम आज अपनी माता पर आश्रित हो जाओगी, फिर कल जब तुम्हें अपना स्वयं का संसार बसाना होगा, तो तुम अपने आप को किसी और पर निर्भर पाओगी। माता तुम्हें आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश कर रही है। इन सांसारिक आडंबरो से परे, तुम अपने आप को कुछ ऐसे तैयार करो की तुम स्वयं अपनी माता का रूप लगो। यह संसार महिषासुर रूपी दानवों से भरा है। यदि तुम स्वयं को अपनी माता दुर्गा की तरह नहीं बनाओगी, तो यह महिषासुर तुम्हें अपना जीवन स्वतंत्रता से व्यतीत नहीं करने देंगे।“
“परंतु क्या वह लड़कियाँ जो यहाँ अच्छे अच्छे कपड़े पहन कर घूम रही है, और इतनी ख़ुश है, वह आगे जाकर ख़ुश नहीं रहेंगी?” उसकी आँखों में अभी भी संशय बिखरा हुआ था।
“आनंद क्या है? तुम स्वयं देखो, वहाँ खड़ी वह लड़की अपनी माता से जिद कर रही है। शायद उसे किसी और की कोई वस्तु पसंद आ गयी है। इतने अच्छे कपड़े पहने हुए होने के पश्चात भी वह प्रसन्न नहीं है। उसकी माँ उसे समझाने की कोशिश कर रही है, परंतु वह अभी भी अक्लांत है। जानती हो क्यों? क्योंकि उसे संतोष नहीं है। जितना भी मिल जाये, असंतोष की वजह से वह कम लगता है। और यही असंतोष अशांति का कारण बनता है। इसी असंतोष की वजह से हमारी ख़ुशियाँ हमसे दूर रहती है। अब बताओ, क्या तुम्हें लगता है की वह इतनी ख़ुश है?”
परंतु वह इतनी जल्दी हार नहीं मानने वाली थी। “परंतु जिसे देख कर वह अपनी माँ से जिद कर रही है, वो तो ख़ुश है ना?”
पंडित जी की मुस्कुराहट और गहरी हो गई। उन्होंने विनोद-पूर्वक उत्तर दिया, “हाँ, वह अभी ख़ुश है। परंतु कब तक, यह कहना मुश्किल है। उसकी ख़ुशी क्षणिक है। जैसे ही उसे कुछ और दिखेगा, जो उसके पास नहीं है, उसका असंतोष उसे इस से वंचित कर देगा। भले ही उसे उस वस्तु की आवश्यकता हो या ना हो।“
अभी पंडित जी का कथन समाप्त भी नहीं हुआ कि तभी उस लड़की को किसी के हाथ में एक नया मोबाइल दिख गया, और वह सचमुच इस तरह से उस नए मोबाइल को घूरने लगी जैसे कई दिनों का भूखा खाने को घूरता है। यह देखकर पहली बार उसके अधर पर हल्की सी मुस्कान आई। उसे अब यह समझ आ गया था की जिनकी ख़ुशियों को देखकर उसका मन अशांत हुआ था, वह कृत्रिम प्रसन्नता थी। परंतु शायद अभी उसके मन का संशय पूर्ण रूप से दूर नहीं हुआ था।
“कृपया मुझे बताए की मेरी माँ मुझे क्या सिखाना चाहती है, और मुझे क्या करना चाहिए?”
“पुत्री, देवी माँ तुम्हें आत्म निर्भर बनाना चाहती है। जीवन के हर मोड़ पर तुम्हें अलग अलग तरह की परिस्थितियों का सामना करना पड़ेगा। माता तुम्हें इस लायक देखना चाहती है कि तुम मुस्कराते हुए हर परिस्थिति का सामना कर सको। साथ ही तुम्हें प्रसन्न देखना चाहती है। सच्ची प्रसन्नता हृदय से आती है, भौतिक वस्तुओं से नहीं। यदि इस सच्चाई को तुम समझ सको, तो तुम्हारा जीवन आनंद से परिपूर्ण रहेगा। सदैव यह देखो कि तुम्हारे पास क्या है, ना कि तुम्हारे पास क्या नहीं है। जीवन यापन हेतु आवश्यक वस्तुएँ यदि तुम्हारे पास है, तो दुःख का तुम्हारे जीवन में कोई स्थान नहीं है। यदि इस सत्य को पहचान लोगी, तो हमेशा ख़ुश रहोगी। यदि सदा प्रसन्न रहोगी, तो मीठा बोलोगी, और तुम्हारे आस पास के लोग भी ख़ुश रहेंगे। इससे सभी तुम्हें पसंद भी करेंगे। देवी माँ यही चाहती है कि उसकी पुत्री सदा आनंदित रहे, प्रसन्नचित्त रहे, जीवन में सफलता पाए, आत्मनिर्भर रहे, एवं सभी सहयोगियों से प्रेम करे।“ इतना कहकर पंडित जी तनिक रुके, एवं प्रश्न किया, “कहो, मानोगी अपनी माता कि बात? कोशिश करोगी उनकी उम्मीदों को पूरा करने का?”
अब तक उसकी आँखों में संशय के बादल छंट चुके थे और उनका स्थान सूर्य की किरणों के समान चमक ने ले लिया था। पंडित की बात उसके हृदय तक पहुँच चुकी थी। अधर पर मुस्कान एवं आँखों में चमक लिए जब उसने उत्तर दिया, तो मानो मंदिर की घंटियाँ बज उठी। “मैं बड़ी होकर जगत जननी माँ दुर्गा जैसी बनूँगी। मुझे अपनी माता की तरह बनना है। मुझे आत्मनिर्भर होना हैं। मेरी माँ ने मुझे जितना कुछ प्रदान किया है, वह मेरे लिए संपूर्ण है। आपका बहुत धन्यवाद जो आपने मेरा मार्गदर्शन किया। माँ को प्रणाम करते हुए मैं आज उन्हें ये आश्वासन देती हु की ये माँ, तुम्हारी यह बेटी अब दुख से दूर रहेगी, तुम्हारे मार्गदर्शन के अनुसार अपना जीवन सवारेंगी, एवं आगे जाकर इस जगत को तुम्हारी तरह माता बनकर स्नेह प्रदान करेगी।“
पंडित के होठों पर मुस्कान थी, आँखों में उसके लिए आशीर्वाद। तभी किसी ने शंख बजाया, और हवा से ऊपर लगा घंटा भी बज उठा। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो देवी दुर्गा भी मुस्कराते हुए उसे आशीर्वाद दे रहो हो। और वह एक नए आत्मविश्वास से परिपूर्ण, उठकर अपने साथियों की और बढ़ चली।
विनय पाण्डेय
१ अप्रैल २०१५
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