एक समय की बात हैं। एक राज्य में विदेश से एक व्यापारी आया। उसने राजा से वहाँ अपना व्यापार करने की अनुमति माँगी। राजा ने अनुमति दे दी एवं कहाँ कि उनके मंत्री इस राज्य में व्यापार करने के नियम बता देंगे। व्यापारी ने मंत्री से मुलाक़ात की एवं सभी नियम समझ लिए। उन नियमों के अलावा मंत्री ने उस व्यापारी को यह भी बता दिया था कि उस राज्य में व्यापार करने पर कुछ खास किस्म के कर देने पड़ेंगे, राजकीय अनुमति हेतु कर, उत्पादक गुणवत्ता जांच में पारित होने हेतु कर एवं सरकारी महकमों की अलग अलग किस्म की जांच से सुरक्षा हेतु कर। यह सभी कर अघोषित थे एवं बिना किसी रसीद के देने पड़ते थे। विदेशी व्यापारी ने सभी शर्तें मंज़र कर अपना व्यापार “निशाले” के नाम से शुरू किया। बहुत जल्दी ही उसका व्यापार चल निकला और लोग उसके बनाए उत्पादों को पसंद करने लगे। फिर वह व्यापारी विदेश से ही अपना यहाँ का व्यापार देखने लगा। यहाँ उसने कुछ अधिकारी नियुक्त कर दिये थे, जो उसके व्यापार की देखभाल करते थे। धीरे धीरे “निशाले” के नए नए उत्पाद बाज़ार में आने लगे, और लोगो में इन उत्पादों की प्रसिद्धि इतनी बढ़ गई कि लोग “निशाले” को बाहर का नहीं, बल्कि अपने राज्य का ही उत्पादक मानने लगे। इन सभी उत्पादों में सबसे अधिक प्रचलित “मिगा” था, जो बिना मेहनत के तैयार होने वाले पौष्टिक खाद्य के रूप में बेचा जाता था। असल में वह पौष्टिक नहीं था, पर उन अघोषित करो की वजह से उसे पौष्टिक पदार्थ घोषित कर दिया गया था। इसीलिए, “निशाले” के अधिकारी भी राज्य के घोषित एवं अघोषित नियम मानते हुए शांति से अपना व्यापार कर रहे थे। बाहर विदेश में बैठे व्यापारी को अब अघोषित कर कुछ चुभने से लगे थे। परंतु वह किसी प्रकार की कठिनाई से बचने के लिए लगातार उन करो का भुगतान करता रहता था। वैसे भी उन करो से होने वाली हानि को वह अपने उत्पादों की गुणवत्ता में गिरावट कर के पूरा करता था। उसे सरकारी जाँच का भय नहीं था, क्योंकि उसके लिए भी नियमित रूप से अघोषित कर दिया जा रहा था।
“निशाले” ने एक नया खाद्य उत्पाद “मिगा ओट” बाज़ार में लाना चाहा। राज्य के नियमानुसार प्रत्येक नए खाद्य पदार्थ की गुणवत्ता जांच आवश्यक होती थी। यह एक साधारण सी प्रक्रिया थी, जिसमे जाँच करने वाले कार्यालय को एकमुश्त रकम भेज दी जाती थी, एवं गुणवत्ता जाँच सफल घोषित कर दी जाती थी। ना इसमें समय लगता था ना ही गुणवत्ता सही रखने की आवश्यकता होती थी। “निशाले” ने अपना नया उत्पाद बाज़ार में बिकने के लिए भेज दिया। उन्हें पता था की गुणवत्ता जाँच के नतीजे ठीक ही आएँगे। परंतु इस बार गुणवत्ता जाँच करने वाले कार्यालय से अधिक राशि की मांग हुई। “निशाले” के अधिकारियों ने विदेश में बैठे व्यापारी से पूछा, तो उसने मना कर दिया। वह पहले से ही इन करो से असंतुष्ट था, पर किसी प्रकार की परेशानी से बचने के लिए, उसने अपने अधिकारियों से मोल भाव करने को कहा। इधर मोल भाव चल रहा था, उधर नया उत्पाद बाज़ार में बिक रहा था। अधिकारियों को जब पता चला कि बिना उनकी अनुमति के नया उत्पाद बिकने लगा है, तो उन्होंने इसे अपने सम्मान पर आघात समझा। उधर व्यापारी और उसके कर्मचारी इस वहम में थे कि उनपर कोई कार्यवाही नहीं की जाएगी। विदेश में बैठे व्यापारी को लगता था कि देर सवेर कुछ कम पैसे में मामला तय हो ही जाएगा।
राजकीय कर्मचारियों को व्यापारी के इस नए उत्पाद को बाज़ार में बिकने के लिए भेजना ठीक नहीं लगा। उन्हें लगा कि यदि उन्होंने इस पर कोई कार्यवाही नहीं की, तो दूसरे व्यापारी इसका अनुसरण करने लगेंगे। उन्होंने अफरा तफ़री में कुछ उत्पाद की जांच करवाई और उस जांच के अनुसार “निशाले” के उत्पादों को खाने हेतु अनुपयुक्त घोषित कर दिया गया। लोगो में हड़कंप मच गया। जिन उत्पादों को लोग कई बरस से खा रहे थे, वह अचानक अनुपयुक्त घोषित कर बाज़ार में मिलने पर रोक लगा दी गयी थी। लोगो ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। पर वह विरोध सिर्फ़ मौखिक था, क्योंकि सभी व्यापारी राजकीय कर्मचारियों से मिले हुए थे। उन्होंने राज्य का साथ देते हुए इन प्रतिबंधित उत्पादों का विक्रय रोक दिया। कुछ छोटे व्यापारियों ने बेचने की कोशिश की तो राजकीय शासन बल का प्रयोग कर के उन सभी प्रतिबंधित उत्पादों को जला दिया गया। एक दो सप्ताह के पश्चात विरोध भी धीमा पड़ गया और लोगो ने अन्य उत्पादों को लेना शुरू कर दिया।
अब व्यापारी की आँखे खुली और उसे राजकीय तंत्र की ताक़त का एहसास हुआ। वह भागा भागा राज्य में आया, और राजा से मिलने की कोशिश की। परंतु राजा स्वयं विदेश दौरे पर था और मुलाक़ात नहीं हो पाई। उसने न्यायालय में अर्जी दाखिल की, परंतु तुरंत उस प्रतिबंध को हटाने में असफल रहा। इस प्रतिबंध की वजह से उसे काफी नुकसान हो रहा था। आख़िरकार वह उन मंत्रियों के पास गया जिन्होंनें उसे वह व्यापार करने की अनुमति दी थी। मंत्रि उसकी मदद को तैयार तो हो गए, परंतु बदले में काफी पैसे की मांग व्यापारी के पास अब और कोई रास्ता नहीं बचा था, सो वह तैयार हो गया।
चूँकि मामला क़ानूनन प्रतिबंध का था, और आम जनता को भी इस प्रतिबंध के बारे में पूर्ण रूप से पता था, इसलिए सीधे सीधे प्रतिबंध वापस नहीं लेने का निर्णय लिया गया। न्यायपालिका में व्यापारी की अर्जी पर सुनवाई होनी थी। इस प्रतिबंध को न्यायपालिका द्वारा रद्द करने की योजना तैयार की गयी। इससे आम जनता में न्यायपालिका पर विश्वास भी बढ़ जाता। परंतु इसमें समय लगना था, और “निशाले” को रोज नुकसान उठाना पड़ रहा था। इसलिए उसे भी कुछ राहत पहुँचाने हेतु राज्य के 2-3 प्रांत में इन उत्पादों पर प्रतिबंध नहीं लगाया गया। उन प्रांत में की गयी जांच में इन पदार्थ को खाने के अनुकूल माना गया। इस तरह से “निशाले” भी पूरे नुकसान से बच गया, और न्यायालय के लिए एक उदाहरण भी तैयार हो गया, की अलग अलग जांच में अलग नतीजे निकाल रहे है। योजना यह बनी की न्यायालय इन जांच को पुनः करने का आदेश देगी, और नए जांच में इन उत्पादों को पूर्ण रूप से सही पाया जाएगा। न्यायालय पहले की गयी जांच को गलत मानते हुए प्रतिबंध हटाने का आदेश दे देगी। फिर मंत्रि इस पूरे प्रकरण की एक जांच आयोग से जांच कराएँगे। उस जांच में किसी को दोष नहीं दिया जाएगा, परंतु भविष्य के लिए कुछ निर्देश दिये जाएँगे।
व्यापारी को इस योजना के बारे में बताया गया, और इसके लिए आवश्यक धन की मांग की गयी। पैसे इतने लग रहे थे जितने में एक नया व्यापार खड़ा हो जाये, परंतु व्यापारी अब समझ गया था की पानी में रह कर मगर से बैर नहीं किया जाया। वह पैसे देने को तैयार हो गया।
उपसंहार: 6 महीने पश्चात
न्यायपालिका के फैसले में मुताबिक “निशाले" के उत्पाद अब प्रतिबंधित नहीं है। लोगो का विश्वास न्यायपालिका पर और बढ़ गया है। राजा अभी भी विदेश दौरे पर है। मंत्रि अभी भी राज्य के व्यापारियों से अघोषित कर लेते है। सबकुछ पहले जैसे चलने लगा है, सिवाय एक के। “निशाल" ने अपने खर्च हुए पैसे की भरपाई करने के लिए, अपने उत्पादों की गुणवत्ता और भी घटा दी है। परंतु चिंता की कोई बात नहीं है, अभी भी वह उत्पाद उन वस्तुओ से बहुत बेहतर है जो आम जनता खाती है।
(इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक है, एवं किसी भी व्यक्ति अथवा संस्थान के साथ हुई समानता सिर्फ़ एक संयोग मात्र है।)
विनय पाण्डेय
२१ अगस्त २०१५
Comments