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देशभक्ति और देशप्रेम की आड़ में किसी को मार देना या मार डालने की धमकी देना भी देश के संविधान का अपमान है। यदि कोई कार्टूनिस्ट भारत के संविधान का, उसी संसद का जिसपर अफज़ल ने आक्रमण किया था, अपमान करता है तो मैं उसे उसकी अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं समझ सकता। यदि कोई जंतर मंतर पर बैठ कर कहता है कि उसका दिया हुआ जनलोकपाल बिल बिना किसी संवैधानिक प्रक्रिया के पास कर दिया जाय तो मैं उसे भी देशद्रोही समझता हूँ। जब एक राजनीतिक दल संविधान एव कानून का उल्लंघन करते हुए अयोध्या में एक मंदिर को ध्वस्त करता है तो वह भी मेरे लिए देशद्रोह ही है। जब कश्मीर में वहाँ के मुख्य मंत्री की पार्टी अफज़ल गुरु को शहीद मानती है और हमारी एक राष्ट्रीय पार्टी उसे समर्थन देकर सरकार बनाती है, मेरे लिए यह भी देशद्रोह ही है। जब एक प्रधान मंत्री सिखों के नरसंहार को बड़ा पेड़ गिरने से तुलना करके समर्थन देता है तब भी मुझे देशद्रोह ही नजर आता है। जब एक दल नाथूराम गोडसे को शहीद कहकर उसकी जयंती मनाता है तब भी मुझे देशद्रोह नज़र आता है। जब आए दिन कश्मीर में भारत विरोधी नारे लगते है, तब भी मुझे देशद्रोह ही नज़र आता है।
शायद मेरे देखने के नज़रिए में ही कुछ ख़ामी है, क्योंकि मैं उन्हें देशद्रोही मानता हूँ जो जेएनयू में देशद्रोही नारे लगाते है, पर मैं उन्हें भी देशद्रोही मानता हूँ जो इन्हें कोर्ट में मारते है, या सोशल मीडिया पर मार डालने की धमकी देते है। मैंने बहुत कोशिश की, परंतु स्वयं को ऐसा नहीं बदल पाया कि जो मेरे मतानुसार चलता हो उसके देशद्रोह को नज़रअंदाज़ कर सकु। मेरा मानना है कि भारत, उसका संविधान और कानून कोई भी भंग करता है, वह देशद्रोही है। शायद मैं गलत हूँ। शायद मुझे भी औरों के साथ मिलकर इन देशद्रोहियो को मार देना चाहिए, भले ही हमारा संविधान उसकी इजाज़त नहीं देता, और भले ही ऐसा करके हम स्वयं अपने संविधान का अपमान कर रहे होंगे, पर शायद यही सही होगा। शायद देश और संविधान की रक्षा करने वालों को उसका अपमान करने की आज़ादी है। शायद, पर क्षमा चाहता हूँ कि मैं वैसा नहीं बन सका, नहीं बन सकता। शायद मैं अपने देश से प्यार नहीं करता, शायद मुझे भी मार देना चाहिए। शायद मैं भी एक देशद्रोही हूँ।
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