मैं एटीएम से पैसे निकाल कर अस्पताल की तरफ आ रहा था। अचानक रास्ते में एक व्यक्ति ने मुझे आवाज दी, "अंकल, अंकल"
मैंने उसकी तरफ देखा, तो उसने गिड़गिड़ाती हुई आवाज में कहा, "मेरे को हफनी है, दवा के लिए 20 रुपये दे दो।"
एक पल को मैं समझ नहीं पाया कि क्या कह रहा है, पर यंत्रवत मेरे मुंह से निकला, "दवा वाले से मांगो।" और मैं अपने रास्ते चल दिया। मैंने पलट कर देखा तक नहीं कि वह वही खड़ा है या आगे चला गया। चंद कदम चलने पर मेरे अंदर दबी हुई इंसानियत ने धीरे से आवाज दी, "15 रुपये की सिगरेट पीने वाला 20 रुपये दे ही सकता था। क्या पता उसे सच में जरूरत हो।"
आधी सिगरेट अभी भी मेरे हाथ में जल रही थी। अपनी अंतरात्मा की उस बात से मेरे अंदर के उस व्यवहारिक इंसान को चोट पहुंची जिसने उसे पैसे देने से माना किया था। उस अंतर्द्वंद की वजह से सिगरेट अब कसैली लगने लगी थी। मेरे अंदर के व्यवहार कुशल चालाक व्यक्तित्व ने मेरी इंसानियत एवं अंतरात्मा से कहा, "बात 20 रुपये की नहीं, व्यवहार और समझदारी की थी। मुझे नहीं पता वह आदमी कौन था। मेरे पर्स में 40 हजार रुपए थे अस्पताल का बिल चुकाने को। यदि मैं पर्स निकालता और वह झपट कर भाग जाता तो मैं क्या करता?"
मैंने आधी बची हुई सिगरेट को फेंका, और पैरो से कुचल कर बुझा दिया। ना जाने क्यों मुझे ऐसा लगा की मैंने अपनी इंसानियत एवं अंतरात्मा को भी ऐसे ही कुचल कर दबा दिया है।
- विनय कुमार पाण्डेय
13 मार्च 2018
मैंने उसकी तरफ देखा, तो उसने गिड़गिड़ाती हुई आवाज में कहा, "मेरे को हफनी है, दवा के लिए 20 रुपये दे दो।"
एक पल को मैं समझ नहीं पाया कि क्या कह रहा है, पर यंत्रवत मेरे मुंह से निकला, "दवा वाले से मांगो।" और मैं अपने रास्ते चल दिया। मैंने पलट कर देखा तक नहीं कि वह वही खड़ा है या आगे चला गया। चंद कदम चलने पर मेरे अंदर दबी हुई इंसानियत ने धीरे से आवाज दी, "15 रुपये की सिगरेट पीने वाला 20 रुपये दे ही सकता था। क्या पता उसे सच में जरूरत हो।"
आधी सिगरेट अभी भी मेरे हाथ में जल रही थी। अपनी अंतरात्मा की उस बात से मेरे अंदर के उस व्यवहारिक इंसान को चोट पहुंची जिसने उसे पैसे देने से माना किया था। उस अंतर्द्वंद की वजह से सिगरेट अब कसैली लगने लगी थी। मेरे अंदर के व्यवहार कुशल चालाक व्यक्तित्व ने मेरी इंसानियत एवं अंतरात्मा से कहा, "बात 20 रुपये की नहीं, व्यवहार और समझदारी की थी। मुझे नहीं पता वह आदमी कौन था। मेरे पर्स में 40 हजार रुपए थे अस्पताल का बिल चुकाने को। यदि मैं पर्स निकालता और वह झपट कर भाग जाता तो मैं क्या करता?"
मैंने आधी बची हुई सिगरेट को फेंका, और पैरो से कुचल कर बुझा दिया। ना जाने क्यों मुझे ऐसा लगा की मैंने अपनी इंसानियत एवं अंतरात्मा को भी ऐसे ही कुचल कर दबा दिया है।
- विनय कुमार पाण्डेय
13 मार्च 2018
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