सर्दियों की वह अलसाई सुबह। ऐसा लग रहा था मानो सुबह भी देर तक सोना चाह रही हो। आकाश धीरे धीरे लाल उजाला फैलाने लगा था। मैं रात भर की अपनी नौकरी के बाद घर की ओर जा रहा था। कहने को सुबह में अलसायापन था। परंतु कुछ लोग अपने कार्यो में लग चुके थे। कही अख़बार वाले गट्ठर लेकर अपनी दुकान लगाने में जुटे थे, तो कही सफ़ाई वाले झाड़ू लेकर सड़क साफ़ कर रहे थे। मुंबई में सर्दियाँ हलकी फुलकी ही होती है। यहाँ दिल्ली वाली कड़ाके की ठंड नहीं पड़ती। फिर भी भोर में इतनी ठंड तो रहती है की आप अपने में सिमट जाए।
अपनी सोसाइटी में आकर देखा की एक 12 वर्ष का बालक गाड़ियाँ साफ़ कर रहा है। कपड़े को पानी से भरी बाल्टी में डुबो कर उसी से गाड़ियों को साफ़ कर रहा था। उसके चेहरे पर ढूँढने पर भी मुझे उस सुबह का आलस्य नहीं दिखा। वहाँ तो कर्मठता दिख रही थी। चेहरे पर उस सर्दी में भी पसीने की बूँद चमक रही थी। उन चमचमाती बूँदों के साथ उसका चेहरा तेजस्वी प्रतीत हो रहा था। मुझसे रहा न गया, पूछ ही लिया, "तुम गाड़ियाँ क्यों साफ़ कर रहे हो? यह तो मंगरू का काम है। वो कहा है?"
"जी वो मेरे पिताजी है। आज उनकी तबियत खराब है। इसलिए मैं आ गया गाड़ियाँ साफ़ करने। वह कल से आ जाएँगे।"
"उस लड़के से इतनी अच्छी एवं सभ्य भाषा की उम्मीद नहीं थी, इसलिए आश्चर्य तो हुआ, पर सुखद सा। कुछ देर और उससे बातें करने के पश्चात मैं अपने घर की और चल पड़ा। उसकी बातों से पता चला की वह आठवीं में पढ़ता है। उसके माँ बाप छिटपुट काम करके अपना पेट पालते है। उसकी पढ़ाई का ख़र्चा एक संस्थान देती है। वह स्वयं भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ा कर अपने माँ बाप का हाथ बताता है। अपने घर आकर अपने बेटे को सोता देखकर एक अजीब सा एहसास हुआ। मुझे पता है की अपने बेटे की गाड़ी साफ़ करने वाले के साथ तुलना नहीं की जा सकती। परंतु मन में वो बात आ हि गयी की कहा वो अपने पिता का हाथ बटा रहा है और कहा ये सो कर अपनी नींद पूरी कर रहा है। धर्मपत्नी को घर पर ना देख हमारा माथा ठनका। इतनी सुबह वो भी सर्दियों की, उन्हें ऐसा क्या काम आ गया जो मुझे फ़ोन ना कर स्वयं चली गयी। बेटे को जगाकर पूछा तो वापस सोने से पहले अलसाया हुआ सा जवाब मिला की उसे कैसे पता होगा। खैर थोड़ी ही देर में हमारी शरीक-ए-हयात वापस आ गयी। पता चला की हमारे साहबज़ादे को आज नाश्ते में आलू के पराँठे चाहिए थे। यह डिमांड कल रात को रख दी गयी थी। घर में मक्खन ना होने की वजह से उसकी माँ को सुबह सुबह बाहर निकलना पड़ा। सर्दियों की सुबह में चाय की चुस्कियां लेता हुआ मैं यही सोच रहा था की मेरे और मंगरू में से किसने सही परवरिश की है अपने बच्चों की। एक अपने पिता का हर काम ने हाथ बँटाता है और दूसरा सिर्फ़ आदेश करता है। मन के एक कोने से आवाज़ उठ रही थी की शायद दोनों अपनी जगह ठीक है। दोनों की ही परवरिश में कोई कमी नहीं। परा जाने क्यों उस विचार को अधिक बल नहीं मिल रहा था।
"पिताजी, मैं आज विरार जाऊँगा, वहाँ के एक अनाथालय में हम दोस्तों ने मिल कर सफ़ाई करने का निश्चय किया है।"
इससे पहले की मैं कुछ बोलूँ, वह फिर शुरु हो गया। "चिंता मत कीजिए। बिजली और फ़ोन का बिल भर चूका हूँ। गैस की बुकिंग हो चुकी है। LIC का प्रीमियम भी भर दिया है। कल माँ की पैरों के मालिश का तेल भी लेते आया हूँ।"
इन बातों को सुनकर मेरे मन की उस छोटी से आवाज़ ने हर तरफ गुंज मचा दी।
"हम दोनों की परवरिश ठीक है। किसी की परवरिश में कोई कमी नहीं है। मंगरू को अपने बेटे पर गर्व होगा, मुझे भी है।"
विनय कुमार पाण्डेय
०३ जनवरी, २०१५
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