उसकी फाँसी की सज़ा तय हो चुकी थी। बीस वर्षों कि कानूनी ज़द्दोज़हद के पश्चात अब बचने की कोई उम्मीद नहीं थी। परसों उसे फाँसी होनी थी। आज उससे मिलने उसकी 21 साल की बेटी आ रही थी। आख़िरी बार वह उससे 3 साल पहले मिली थी, और आज तक उसके अपनी बेटी के कहे शब्द याद थे।
"आपने अपना रास्ता ख़ुद चुना है, और मेरे या माँ के बारे में सोचे बिना चुना है। आपका रास्ता आपको मुबारक हो। मुझे आपसे यह नहीं समझना है कि आपने 300 लोगो की जान किस वजह से ली है। मुझे नहीं लगता कि मैं आपकी वजह को समझ पाऊँगी। मुझे अपनी ज़िंदगी जीना है, और आपके नाम की वजह से मुझे हर जगह घृणा और दुत्कार का सामना करना पड़ा है। आज से मैं अपने आप को आपसे अलग कर रही हूँ। आपको जो सही लगा वह आपने किया, अब मुझे जो सही लग रहा है, वो मैं कर रही हूँ। मैंने आपसे सफ़ाई नहीं माँगी और मुझे आपको किसी तरह की सफ़ाई देने की जरूरत नहीं है। मेरा खुदा जानता है कि मैंने आपसे कितना प्यार किया है, कि मैं आपको बेगुनाह समझती रही हूँ। जब भी मुझे एक आतंकवादी के बेटी कहा जाता था, मैं आपके लिए लड़ी हूँ। पर अब और नहीं। मैं अपने खुदा से आपके लिए दुआ माँगूँगी की फाँसी पर चढ़ने से पहले वह आपको सही गलत की समझ दे, ताकि आप उन 300 लोगो के लिए कम से कम एक आँसू तो बहा सके। मैं आपके खुदा को नहीं जानती, और ऐसे खुदा को नहीं मानती जो इन्सानो की हत्या करने पर जन्नत देता हो। इसलिए मैं अपने खुदा से दुआ करूँगी, आपके खुदा से नहीं।"
वह सिर्फ़ देखता रह गया था अपनी 18 साल की बच्ची को। उसके जाने के बाद अपनी पत्नी से सिर्फ़ इतना कह पाया था, "कितनी सयानी बातें करने लगी है मुनिया।"
और उसकी पत्नी सिर्फ़ आँसू बहती रही।
आज जब वह अपनी मौत से सिर्फ़ 2 दिन दूर था, उसकी वह बेटी जिसने पिछले 3 साल से अपनी शक्ल नहीं दिखाई, आज उससे क्यों मिलना चाहती थी, यह उसकी समझ से परे था। जीवन की इस स्थिति में उसके लिए अब कुछ भी समझना मुश्किल सा था। इस केस के शुरुआत में सभी ने उसे यह आश्वासन दिया था कि वह छूट जाएगा। उसके ख़िलाफ कोई केस नहीं है। यदि होती भी है तो बस छोटी मोटी सज़ा होगी। फाँसी कि तो उसने कल्पना भी नहीं की थी। पर कल्पना तो उसने इतने बड़े नरसंहार की भी नहीं की थी। वह जिहादी नहीं था, पर उनके साथ सहानुभूति रखता था। वह इस नरसंहार का अपराधी नहीं था। उसका क़ुसूर बिना जाने अपने भाई की मदद करना था। उसने अपनी 19 साल की जेल में बिताई ज़िंदगी में कई बार स्वयं से यह प्रश्न किया कि यदि उसे इस नरसंहार के बारे में पता होता, तो क्या वह अपने भाई की मदद करता? शुरुआती दिनों में उत्तर मिलता कि नहीं, कदापि नहीं। फिर धीरे धीरे कार्यवाही बढ़ती गई, उसका एक जेल से दूसरे जेल का सफ़र भी शुरू हुआ। धीरे धीरे उसे जेल में साल से बंद लोगो के बारे में पता चला, उनसे मिलकर उनकी आपबीती सुनकर धीरे धीरे उसका अपना विश्वास इस देश के कानून से उठने लगा। कई तो उसे ऐसे मिले जो पिछले 10-15 वर्षों से बिना किसी सज़ा के जेल काट रहे थे। स्वयं वह भी उनमें से एक था। उसने पुलिस और जांच करने वाली संस्था को सारी जानकारी दी, और काफी लोगो को पकड़वाया था। पर जांच करने वाले तो मानो उस पूरे नरसंहार का बदला चुकाने पर तुले हुए थे। वह लोग फ़ैसला नहीं बदला चाहते थे। कानून को तोड़ा मरोड़ा जा रहा था। सबूतों और तथ्यों को जोड़ तोड़ कर उसके ख़िलाफ इस्तेमाल किया जा रहा था। फिर वही हुआ जिसका डर था। उसे फाँसी की सज़ा सुना दी गयी। ये लोग असली अपराधी को पकड़ नहीं पाए तो जो मिला उसे ही फाँसी पर चढ़ा कर अपना बदला चुकाना चाहते थे। इसी समय उसे अपने प्रश्न के उत्तर में नहीं की जगह हाँ सुनाई देने लगी। वह अपने भाई जैसा बन रहा था। अब उसे लगने लगा था कि यह नरसंहार आवश्यक था। इस देश को कुछ और ऐसे झटके की जरूरत है। जेल में बंद अन्य तथाकथित आतंकवादियों ने उसे यह एहसास दिला दिया था कि फाँसी की सज़ा मुकर्रर होना और फाँसी होने में बहुत फर्क है। उन्होंने ही उसे रास्ते बताए जिनके सहारे वह पिछले 15 वर्षों से फाँसी से बचता आ रहा था। अब उसे चूहे बिल्ली के इस खेल में मज़ा आने लगा था। पर 3 वर्ष पहले अपनी बेटी से मिलने के बाद वह एकदम शांत हो गया। उसे अब और जीने की ख़्वाहिश नहीं रही। इन 3 वर्षों में एक एक करके उसकी सारी याचिका रद्द हो चुकी थी। वह चाहता तो अभी भी बहुत कुछ कर सकता था। पर पिछले 3 वर्षों में उसने एक भी नई याचिका नहीं डाली। मानो उसने फाँसी स्वीकार कर ली थी। अब 2 दिन और, फिर उसे छुटकारा मिलने वाला था।
"मुझे माफ़ कर दीजिए पापा, मैंने आपको गलत समझा था।"
यह सुनकर उसे अपने अंदर एक अजीब से अनुभूति हुई। उसे अपनी बेटी से ऐसे किसी कथन की उम्मीद नहीं थी।
"पिछले 3 वर्षों से मैं जगह जगह घूम रही हूँ। मैंने अपने लोगो की हालत देखी है। उनकी गरीबी देखी है। उनकी आपबीती सुनी है। उनपर जो जुल्म हो रहे है, वह मैंने स्वयं अपनी आँखों से देखा है। कैसे आज हमारी कौम को आतंकवादी समझा जाता है, कैसे पुलिस उनपर बिना वजह अत्याचार करती है, यह सब मैं ख़ुद देख कर आई हूँ। पहले मुझे लगा था कि आपके चलते मुझे हर जगह विरोध झेलना पड़ रहा है। परंतु अब पता चल चुका है कि यह विरोध नहीं, व्यवहार है हमारे साथ। हमें हर जगह दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है। आपने और चाचा ने जो किया बिलकुल ठीक किया। इन लोगो के साथ ऐसा ही व्यवहार करना चाहिए। इन्हें सबक सिखाना बहुत ज़रूरी है। पर आप चिंता मत कीजिए, मैं चाचा के संपर्क में हूँ और जल्दी ही हम लोग आपका बदला लेंगे।"
उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी, और चेहरा तमतमा रहा था। वह कहती गई।
"मुझे आपसे अपने 3 साल पहले के व्यवहार कि माफ़ी माँगनी थी, और साथ में आपको बताना था कि आपके काम को आपके बाद मैंने अपना लिया है। हम अपने मक़सद में ज़रूर कामयाब होंगे।"
इससे पहले कि वह कुछ कह पाए, वह एक छलावे कि तरह उठकर चली गयी। तभी कुछ पुलिस वाले दौड़ते हुए अंदर आए। वह समझ गया कि उनकी बातचीत सुनी जा रही थी, इसलिए उसकी बेटी तुरंत निकाल भागी थी।
उसकी बेटी जा चुकी थी, पर उसके कहे शब्द अभी भी कानों में गुंज रहे थे। उन शब्दों में पता नहीं क्या जादू था, उसके अंदर एक अजीब सी स्फूर्ति आ गयी थी। उसने चहकते हुए पुलिस वालों से कहा, "मुझे मेरे वकील से मिलना है। याचिका दायर करनी है। मैं अभी फाँसी पर चढ़ने वाला नहीं हूँ।"
विनय पाण्डेय
३० जुलाई २०१५
विनय पाण्डेय
३० जुलाई २०१५
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