जॉर्ज ऑरवेल की 1984 न जाने कितनी बार पढ़ी है। हर बार एक डरावनी कल्पना की तरह लगी, लेकिन अब महसूस होता है कि वह "कल्पना" धीरे-धीरे हकीकत बन गई है। तब लगता था कि ऐसा समाज सिर्फ किताबों में होता है — असल दुनिया में लोग विरोध करेंगे, आवाज उठाएँगे। लेकिन आज मैं कह सकता हूँ कि हम उस 1984 वाले समाज में पहुँच चुके हैं। फर्क बस इतना है कि अब हम खुद को उसके अनुरूप ढाल चुके हैं — जैसे इंसान नहीं, एक झुंड में तब्दील होते जानवर हों। भेड़-बकरी की तरह जी रहे हैं हम। रोजमर्रा के कामों में खोए हुए, चुपचाप। अगर झुंड से कोई कम हो जाए — किसी हादसे में, किसी हमले में — तो बाकियों पर कोई असर नहीं पड़ता। मानो कुछ हुआ ही न हो। यही हमारी सच्चाई बन गई है। सोचने की शक्ति खो चुके हैं। सवाल पूछना, विरोध करना, इंसानियत दिखाना — सब पीछे छूट गया है। आज हमारे ही देश में कुछ लोग छुट्टियों या दर्शन के लिए निकलते हैं — उन्हें पहचानकर गोलियाँ मारी जाती हैं। हम नहीं पूछते कि हमलावर देश में घुसे कैसे? उनके पास हथियार आए कहाँ से? हमारी सुरक्षा व्यवस्था सो रही थी क्या? अब तक वे पकड़े क्यों नहीं गए? उन्हे...
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