जॉर्ज ऑरवेल की 1984 न जाने कितनी बार पढ़ी है। हर बार एक डरावनी कल्पना की तरह लगी, लेकिन अब महसूस होता है कि वह "कल्पना" धीरे-धीरे हकीकत बन गई है। तब लगता था कि ऐसा समाज सिर्फ किताबों में होता है — असल दुनिया में लोग विरोध करेंगे, आवाज उठाएँगे। लेकिन आज मैं कह सकता हूँ कि हम उस 1984 वाले समाज में पहुँच चुके हैं। फर्क बस इतना है कि अब हम खुद को उसके अनुरूप ढाल चुके हैं — जैसे इंसान नहीं, एक झुंड में तब्दील होते जानवर हों।
भेड़-बकरी की तरह जी रहे हैं हम। रोजमर्रा के कामों में खोए हुए, चुपचाप। अगर झुंड से कोई कम हो जाए — किसी हादसे में, किसी हमले में — तो बाकियों पर कोई असर नहीं पड़ता। मानो कुछ हुआ ही न हो। यही हमारी सच्चाई बन गई है। सोचने की शक्ति खो चुके हैं। सवाल पूछना, विरोध करना, इंसानियत दिखाना — सब पीछे छूट गया है।
आज हमारे ही देश में कुछ लोग छुट्टियों या दर्शन के लिए निकलते हैं — उन्हें पहचानकर गोलियाँ मारी जाती हैं। हम नहीं पूछते कि हमलावर देश में घुसे कैसे? उनके पास हथियार आए कहाँ से? हमारी सुरक्षा व्यवस्था सो रही थी क्या? अब तक वे पकड़े क्यों नहीं गए? उन्हें पनाह देने वाले कौन थे? हम नहीं पूछते, क्योंकि सवाल पूछना मना है।
तीर्थ में भगदड़ होती है, कई जानें चली जाती हैं। सरकार अपनी पीठ थपथपाती है कि आयोजन सफल रहा। मृतकों की संख्या तक नहीं बताई जाती। और हम चुप हैं। यह नहीं पूछते कि गलती किसकी थी, सुधार क्या होगा। क्योंकि सवाल पूछना मना है।
एक निजी एयरलाइंस का विमान — जो निजी हवाईअड्डे से उड़ान भरता है — कुछ ही देर में दुर्घटनाग्रस्त हो जाता है। सैकड़ों जानें चली जाती हैं। हम नहीं पूछते कि जांच में चूक कहाँ हुई, बजट में कटौती हुई क्या? तकनीकी खामी क्यों नहीं पकड़ी गई? हम चुप रहते हैं, क्योंकि सवाल पूछना मना है।
खेल की जीत मनाने गए लोग भगदड़ में मारे जाते हैं। हम सवाल नहीं पूछते कि व्यवस्था में कहां चूक हुई, किसकी गलती थी और किसी की जिम्मेवारी क्यों नहीं तय हो रही है? क्योंकि सवाल पूछना मना है।
सरकार किसी भी पार्टी की हो — फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि अब हम सवाल पूछने की ताक़त खो चुके हैं। हम अब बस एक निरीह झुंड हैं।
बधाई हो — हम इंसान से जानवर बन चुके हैं। अब इंतज़ार कीजिए अपनी बारी का। शायद किसी दुर्घटना में मारे जाएँ — जो टल सकती थी। या किसी हमले में — जिसे रोका जा सकता था। या किसी महामारी में — जिसे संभाला जा सकता था। तब तक, जीवन के इस अंधेरे में आँख मूंदे जीते रहिए।
क्योंकि अब...
सवाल पूछना मना है।
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