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त्रैलोक्या तारिणी

त्रैलोक्या तारिणी
✦ ऐतिहासिक साहित्यिक उपन्यास ✦
विनय कुमार पाण्डेय ‘चामुण्डा‘
समर्पण
उन सभी स्त्रियों के नाम जो इस समाज की चुप्पी और अन्याय के बीच अपने हिस्से की चीख़ दबा गईं।
और उन आवाज़ों के नाम, जो अब भी दीवारों के पीछे गूँजती हैं।
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1850 के दशक के बंगाल में जन्मी एक नन्ही बालिका—त्रैलोक्या—समाज के काले कानूनों और पितृसत्ता की क्रूर परंपराओं के बीच पिसती है। विधवा बनकर बहिष्कृत, वेश्या बनकर बिकती है, और अंततः हत्यारिन बनकर इतिहास में दर्ज होती है।
‘त्रैलोक्या तारिणी’ एक ऐसी स्त्री की कालजयी कथा है जो अपने ज़ख्मों से एक युद्ध रचती है। यह उपन्यास पाठक को उस युग की गलियों में ले जाता है जहाँ हर स्त्री, या तो चुप रहती थी—या अपराधी बन जाती थी।
सच्चाई, सहानुभूति और आक्रोश की एक त्रयी—जिसे पढ़ना केवल एक कहानी पढ़ना नहीं, बल्कि एक सवाल का सामना करना है।
“क्या व्यवस्था भी हत्यारिन होती है?”
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प्रस्तावना: लेखक की ओर से
जब मैंने पहली बार त्रैलोक्या तारिणी का नाम एक छोटे से समाचार आलेख में पढ़ा, तो वह एक अपराधिनी की तरह प्रस्तुत की गई थी—भारत की पहली महिला सीरियल किलर।
पर जैसे-जैसे मैं उसके जीवन की परतें खोलता गया, मुझे दिखने लगा कि वह केवल एक हत्यारिन नहीं थी, वह एक रूपक थी—उस युग की, उस व्यवस्था की, और उस स्त्री की जो कभी अपने शरीर से, कभी अपनी चुप्पी से और कभी अपने प्रतिकार से पहचानी गई।
यह उपन्यास इतिहास का दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि एक उस संवेदना की पुनर्रचना है, जिसे हमारे ग्रंथों और पाठ्यक्रमों ने अक्सर अनदेखा किया। इसमें घटनाएँ, नाम, और संवाद उस सत्य से प्रेरित हैं जिसे हमने 'कथा' कहकर भुला दिया।
त्रैलोक्या की कहानी लिखना मेरे लिए केवल लेखन नहीं था, यह उस घाव को छूने जैसा था जो समाज अब भी छुपाए फिरता है—कभी 'विधवा' कहकर, कभी 'वेश्या' कहकर, और कभी 'अपराधिनी' कहकर।
यदि इस कथा को पढ़ते समय किसी पाठक की आँखें कुछ क्षण के लिए गीली हो जाएँ, या कोई यह सोचने लगे कि 'क्या यह सब टाला जा सकता था?', तो यही इस लेखन का उद्देश्य है।
– विनय कुमार पाण्डेय ‘चामुण्डा’
www.fb.com/bkpandey
bkpandey@gmail.com

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ऐतिहासिक संदर्भ
यह कथा निम्नलिखित ऐतिहासिक साक्ष्यों एवं संदर्भों से प्रेरित है:
• 19वीं सदी के बंगाल में बाल विवाह एवं विधवा प्रथा पर आधारित रिपोर्टें (Calcutta Gazette, 1850–1885) • “Trailokya Tarini: The Forgotten Widow Killer” – इंडियन एक्सप्रेस पुरालेख, 1932 संस्करण • Inspector Priyanath Mukhopadhyay’s criminal case diaries – ‘Darogar Daptar’ (1880s) • सोनागाछी के वेश्यावृत्ति से संबंधित सामाजिक अध्ययन, रवींद्र भारतीय शोध संस्थान (1950s)
हालाँकि इस उपन्यास में रचनात्मक स्वतंत्रता और कल्पना का भी समावेश है, तथ्यों की प्रमाणिकता और युगीन यथार्थ को यथासंभव सत्य के निकट रखा गया है।
उन्नीसवीं सदी के भारत में स्त्री की स्थिति केवल शोषण का नहीं, मौन सहमति का भी एक गंभीर अध्याय है। ‘त्रैलोक्या तारिणी’ उस समाज की उपज थी जहाँ स्त्री पहले बालिका के रूप में बलिदान होती है, फिर विधवा बनकर बहिष्कृत, और अंततः पाप की परिभाषा में ढाल दी जाती है।
यह उपन्यास केवल एक चरित्र की कथा नहीं है, यह उस व्यवस्था की आलोचना है जो न्याय और अपराध के बीच की रेखा को केवल लिंग के आधार पर खींचती रही है।
इस उपन्यास को पढ़ते हुए पाठक न केवल बंगाल की सामाजिक बनावट को समझ पाएँगे, बल्कि उन प्रश्नों से भी टकराएँगे जिनका उत्तर आज भी अधूरा है।
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अध्याय 1: निरीह बालवधू
(1855, बर्धमान जिला, बंगाल प्रांत)
गाँव के उत्तर छोर पर, जहाँ नहर की पतली धार मिट्टी के बीच चुपचाप बहती थी, वहीं झाड़-फूस से बनी एक कच्ची झोंपड़ी खड़ी थी—समय की छाया में झुकी हुई, पर अब भी अपने आप में अडिग। वहीं रहती थी त्रैलोक्या—महज़ बारह बरस की एक बालिका, जिसकी मुस्कान उस मिट्टी की तरह सरल और सच्ची थी, जिसमें वह अपने हाथों से काँच की चूड़ियों जैसी गीली मिट्टी की गुड़ियाँ बनाती थी।
सुबह की धूप जब खेतों पर उतरती थी, त्रैलोक्या माँ के साथ चूल्हा फूँकने में हाथ बँटाती थी। लेकिन वह चूल्हा भी उसके लिए कोई श्रम नहीं था, वह तो एक खेल था—जैसे जलती लकड़ियों से निकलता धुआँ उसकी कल्पना में परियाँ बन जाता हो। दोपहर को वह नहर किनारे बैठकर पानी में अपनी परछाईं से बातें करती, और शाम को तुलसी चौरे के पास बैठी अपनी माँ से रामायण की कहानियाँ सुनती—जहाँ स्त्रियाँ सीता जैसी थीं, लेकिन त्रैलोक्या की आँखों में वो रेखाएँ नहीं खिंचती थीं जो सीता के वनवास में दिखती थीं। उसे क्या पता था, उसका अपना वनवास कितनी निकट था।
एक दिन मंदिर से लौटते पंडित हरिदास का चेहरा कुछ अधिक गंभीर था। वह चुपचाप घर आए और कहा—“शंकर बाबू के यहाँ से बात पक्की हो गई है। तिथि तय कर दी गई है। त्रैलोक्या अब अपने घर जाएगी।“
पार्वती देवी, जो चूल्हे के पास बैठी बैंगन छील रही थीं, सहम गईं। उनका हाथ रुक गया।
“इतनी छोटी है... अभी तो बारह साल की भी नहीं हुई। उसका खेलना-कूदना भी पूरा नहीं हुआ...”
हरिदास की दृष्टि कठोर हो गई। “ब्राह्मण कन्या के भाग्य में बचपन नहीं होता, धर्म होता है। बड़े कुल का रिश्ता आया है। उनके घर की बहू बनकर त्रैलोक्या का जीवन सुधर जाएगा।“
उस रात जब माँ ने त्रैलोक्या को बाल सँवारते हुए कहा कि उसे जल्द ही ‘दुल्हन’ बनना है, तो वह मुस्कुरा दी।
“दुल्हन मतलब मुझे लाल जोड़ा मिलेगा ना? और सोने की बाली?”
माँ ने हँसते हुए सिर हिलाया, पर आँखों की कोरें भीग गईं। उन्हें ज्ञात था कि यह हँसी जल्द ही बुझ जाएगी, जैसे दीपक को आँधी में रख दिया जाए।
विवाह का दिन आया। गाँव के बीचोबीच बना मंडप फूलों और आम के पत्तों से सजाया गया था। ढोलक और शहनाई की ध्वनि के बीच त्रैलोक्या को उस लाल बनारसी में लपेटा गया, जिसमें वह चल भी नहीं पा रही थी। चूड़ियों की खनक अब शोर लग रही थी।
घूँघट के पीछे से उसने वर को देखा—एक अधेड़ पुरुष, जिसकी आँखें बीड़ी के धुएँ से लाल थीं, माथे पर पसीने की रेखा और होंठों पर नशे का स्वाद। त्रैलोक्या की उँगलियाँ काँपने लगीं। उसने माँ का हाथ थामा—“माँ, मुझे डर लग रहा है... ये तो मेरे बाबा जैसे हैं...”
माँ चुप रही। कोई शब्द नहीं थे जो उस पल को समझा सकें। विवाह के मंत्रों में त्रैलोक्या की बाल-काया का समर्पण हो रहा था, जिसे वह स्वयं भी नहीं समझती थी।
ससुराल पहुँचते ही उसके लिए संसार बदल गया। चूड़ियों से खेलने वाली लड़की अब ताँबे के बर्तन माँजती, झाड़ू लगाती, पानी भरती। सास की फटकारें उसकी दिनचर्या बन गई थीं।
“बिना बुलाए आ गई रसोई में? अरे, तेरी अकल क्या घास चरने गई है?”
त्रैलोक्या चुपचाप सिर झुकाकर आटे में पानी मिलाने लगी। उसकी उँगलियाँ जल रही थीं, पर वह आवाज़ नहीं करती।
रातें उससे भी भयावह थीं। जब उसका पति, जिसकी उम्र पचास के पार थी, उसके पास आता, तो त्रैलोक्या का शरीर सिहर उठता। वह कुछ नहीं समझती थी, सिर्फ इतना जानती थी कि यह सब गलत है, दुखद है। उसका कोमल शरीर उस अंधेरे में दबाया जाता, उसकी सिसकियाँ तक चुप रह जातीं। वह जानती थी कि विरोध करने पर उसे मार पड़ेगी, उसे दोषी ठहराया जाएगा।
एक रात, जब वह चुपचाप कोने में बैठी अपने पैरों को सहला रही थी, सास ने चूल्हे की राख उसके पास फेंक दी।
“कल सुबह चार बजे उठेगी। बहू बनकर आई है या रानी बनकर? और हाँ, साबुन नहीं मिलेगा रोज़-रोज़, जान ले ये भी।“
त्रैलोक्या ने कुछ नहीं कहा। उसकी छोटी आँखें अब सपनों की नहीं, आदेशों की भाषा पढ़ रही थीं।
कुछ ही महीनों में उसका पति बीमार पड़ गया। खाँसी के दौरों ने उसके शरीर को तोड़ डाला। एक रात वह अचानक चटाई पर गिर पड़ा, और उसकी साँसे थम गईं। घर में स्त्रियाँ रोने लगीं, लेकिन त्रैलोक्या की आँखें सूखी थीं। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह दुखी हो या मुक्त।
“अभी तो... अभी तो मैं नई-नई आई थी... अब क्या?”
उत्तर आया—“अब तू विधवा है।“
और विधवा बनते ही उसका नाम, उसका चेहरा, उसका रंग—सब निषिद्ध हो गया। उसे एक कोठरी में बैठाया गया। बाल काट दिए गए। चूड़ियाँ तोड़ी गईं। सिंदूर पोंछा गया। सफेद साड़ी ओढ़ा दी गई। एक पुरोहित ने विधवा धर्म के नियम पढ़े—“अब यह सादा खाएगी, एक समय भोजन करेगी, किसी शुभ कार्य में सम्मिलित नहीं होगी, श्रृंगार नहीं करेगी।“
त्रैलोक्या की आँखों से उस दिन पहली बार सच्चे आँसू बहे। वह अब एक जीवित लाश थी।
दिन बीतते गए। उसे किसी त्योहार में भाग लेने की अनुमति नहीं थी। जब गाँव में कोई बारात आती, तो उसे कोठरी में बंद कर दिया जाता। उसकी सास कहती—“विधवा को देखना अशुभ होता है। तू तो अपशगुन है।“
एक दिन उसकी ‘मासी’ आई—चटक रंग की साड़ी पहने, होंठों पर पान की लाली, बातों में शहद सी मिठास।
“बिटिया, कलकत्ता चल। वहाँ काम मिलेगा। खाना मिलेगा। कोई तुझे अपशगुन नहीं कहेगा। वहाँ तेरी ज़िंदगी सुधर सकती है।“
त्रैलोक्या की आँखों में संदेह और आशा दोनों थे। वह जानती थी कि यह जीवन नहीं था। शायद वहाँ कुछ और हो—कुछ अच्छा। शायद वह फिर से मुस्कुरा पाए। उसे लगा मासी देवी हैं, जो उसे इस नरक से निकालेंगी।
“माँ... मैं जाऊँ?” उसने पहली बार प्रश्न किया।
पार्वती ने कुछ नहीं कहा। उनके हाथ काँपते हुए बेटी के माथे पर पहुँचे। उन्होंने उसका चेहरा चूमा और धीरे से कहा—“जा।“
जब मासी उसे टट्टूगाड़ी पर बैठाकर गाँव से ले गई, तो त्रैलोक्या पीछे मुड़कर नहीं देख सकी। उसके पास कुछ था ही नहीं जिसे देखती। माँ की गोद, पिता की छाया, मिट्टी की गुड़िया—सब बहुत पीछे छूट चुके थे।
उसकी सफेद साड़ी हवा में उड़ रही थी, जैसे कोई पताका हो किसी पराजय की। वह चल पड़ी थी... एक ऐसे रास्ते पर, जिसकी मंज़िल उसे नहीं पता थी।
उसे नहीं मालूम था कि कलकत्ता की गलियों में जो कोठा उसका इंतज़ार कर रहा है, वह उसकी आत्मा को नीलाम कर देगा।

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अध्याय 2: सोनागाछी की पहली रात
(1856, कलकत्ता)
हथेली की रेखाएँ जब थक जाती हैं, तो रास्ते बनाना छोड़ देती हैं। और जब पाँव थकते हैं, तो मन दिशा भूल जाता है। त्रैलोक्या के मन की वही दशा थी जब टट्टूगाड़ी कलकत्ता के किनारों को पार कर भीतर की संकरी गलियों की ओर मुड़ी।
उसने पहली बार इतने ऊँचे मकान देखे थे—लाल ईंटों की दीवारें, बालकनी में खड़ी औरतें जिनकी साड़ियाँ चमक रही थीं, और सड़क पर तेज़ी से निकलती बग्घियाँ जिनमें बैठी स्त्रियाँ ताँबे की तरह दमक रही थीं। पर उन चेहरों पर मुस्कान नहीं थी—बस नज़रें थीं, गहरी, थकी हुई, और भीतर तक चुभती हुई।
“देख रही है बिटिया, ये है बड़का शहर,” मासी ने कहा। उसके पान-सने होंठ मुस्कराए, लेकिन आवाज़ में कोई गर्मी नहीं थी।
त्रैलोक्या ने पूछा, “माँ जैसी कोई रहती है यहाँ?”
मासी हँसी—एक फीकी हँसी। “यहाँ माँ नहीं होती, यहाँ तो औरतें होती हैं—जो दूसरों की माँ, बहन, पत्नी बनती हैं... अपने लिए कुछ नहीं।“
गाड़ी रुक गई। वह गली संकरी थी, दीवारों पर चूना उखड़ रहा था और हवा में तेल, धुएँ और अजनबीपन की गंध थी। सामने एक दो-मंज़िला मकान था, जिसकी खिड़कियाँ भीतर से बंद थीं, लेकिन उनके पीछे नज़रों की आहट थी।
मासी ने कहा, “यही है तुम्हारा नया घर। चल, अंदर चल।“
त्रैलोक्या ने भीतर कदम रखा। एक पतला गलियारा, फर्श पर बिछी पुरानी चटाई, दीवार पर टूटा आईना, और कोने में एक मेज़ जिस पर पीतल की कटोरी में तेल जल रहा था। एक अधेड़ औरत दरवाज़े पर खड़ी थी—उसकी आँखें बिना भाव की थीं, और चेहरा ऐसा जैसे जीवन ने उसके ऊपर कई बार मिट्टी पोती हो।
“इन्हें माँ कहो,” मासी ने कहा। “ये ही यहाँ सब संभालती हैं।“
माँ? त्रैलोक्या के मन में हूक उठी। उसने धीरे से कहा, “नमस्ते...”
उस औरत ने सिर हिलाया, “नाम क्या है?”
“त्रैलोक्या।“
“लंबा है। अब तू ‘टीला’ कहलाएगी।“
टीला? उसका नाम बदल गया। पहला संकेत कि अब वह कोई और बनने जा रही थी।
उसी शाम उसे नए कपड़े दिए गए—जरीदार साड़ी, भारी पायल, और हाथ में चूड़ियाँ। वह घबरा गई।
“ये... ये क्यों?”
“तू सुंदर है, बेटी,” माँ ने कहा। “जो सुंदर है, उसका उपयोग भी होता है।“
उसने प्रतिवाद करना चाहा, लेकिन शब्द नहीं निकले।
रात आई। उसे एक कमरे में ले जाया गया। भीतर एक दीया जल रहा था, और खिड़की से आती हवा में पान और इत्र की मिली-जुली गंध थी। वहाँ एक आदमी पहले से बैठा था—गोल टोपी, कुर्ता और आँखों में लालसा।
“यह राजा बाबू हैं,” माँ ने कहा। “तुझे कुछ नहीं करना, बस बैठ जाना, मुस्कुराना, और जो कहें वो करना।“
त्रैलोक्या काँपने लगी। वह पीछे हटना चाहती थी। “मैं नहीं कर सकती... मुझे नहीं रहना यहाँ...”
माँ की आँखों में वह कठोरता आ गई जो बंद दरवाज़ों के पीछे उगती है। “अब लौट नहीं सकती। तेरे माँ-बाप ने तुझे बेच दिया है। और अगर तू मानी नहीं, तो भूखी मरेगी। या पुलिस को दे देंगे, कहेंगे चोरनी है। समझी?”
त्रैलोक्या की आँखें डबडबा गईं। वह उसी जगह बैठ गई, जैसे कोई गुड़िया जिसे ज़ोर से पटक दिया गया हो।
राजा बाबू ने उसकी ठोड़ी थामी। “नाम क्या है, रानी?”
उसने सिर झुका लिया।
उस रात वह एक बार नहीं मरी। हर बार जब उसका शरीर किसी परछाईं के नीचे दबा, उसकी आत्मा एक और टुकड़ा छोड़ती गई।
और सुबह? सुबह वह नहाई नहीं, धोई गई। आँखों में आँसू नहीं थे, वे सूख चुके थे।
बाहर माँ बैठी थी, चाय पीती हुई। “अब तू हमारी टीला है। आज रात फिर आएँगे लोग। मुस्कराना सीख ले। यहाँ आँसुओं की कोई क़ीमत नहीं।“
त्रैलोक्या की नज़र दहलीज़ पर पड़ी एक बिल्ली पर गई, जो जूठी थाली से चावल खा रही थी। वह बिल्ली भाग गई, लेकिन त्रैलोक्या वहीं बैठी रही।
क्योंकि वह भाग नहीं सकती थी।

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अध्याय 3: काली बाबू का साथ और धोखाधड़ी की शुरुआत
(1868, कलकत्ता)
समय का चक्र घूम चुका था। जिस त्रैलोक्या ने कोठे में डरते हुए पहली रात बिताई थी, वह अब सोनागाछी के उन्हीं गलियारों में अपने कदमों की आवाज़ से पहचान बनाने लगी थी। अब उसके कमरे की बत्ती रात के पहले ही जल जाती थी, क्योंकि ग्राहक इंतज़ार में होते थे।
उसे अब लोग ‘टीला बाई’ कहते थे—जिसकी आँखों में ठंडक थी, होंठों पर मुस्कान और चाल में वो ठहराव, जो नाच में नहीं, बाज़ार में आता है। मगर यह सब उसने किसी गुरु से नहीं सीखा था—यह सब उसकी आत्मा की दरकती परतों ने उसे सिखाया था।
एक रात, जब वह बारजों में बैठी अपने पंखा झलवाते हुए पान चबा रही थी, एक सज्जन दरवाज़े से भीतर आए। उनकी चाल में आत्मविश्वास था, हाथ में छड़ी और आँखों में वह चंचलता जो शहर के खाते-पीते बाबुओं की निशानी थी।
“काली बाबू,” माँ ने धीरे से कहा।
त्रैलोक्या ने सिर उठाया। वह उसे देख रही थी, लेकिन भीतर से देख रही थी। उस दृष्टि में ग्राहक और पुरुष में फर्क करना वह सीख चुकी थी।
काली बाबू ने मुस्कुराते हुए कहा, “टीला बाई, आपकी कहानियाँ बहुत सुनी हैं। सोचा, आज खुद सुन लें।“
वह मुस्कराई, जैसे कोई मोर अपनी पूँछ फैलाता है, पर भीतर कोई स्वर नहीं फूटा।
शराब के गिलास उठे, पान के डिब्बे खुले, बातें हुईं—राजनीति, व्यापार, कलकत्ते की चाय, और औरतें।
त्रैलोक्या ने देखा कि वह आदमी दूसरों से अलग है—वह सिर्फ खरीदने नहीं आया, वह साझेदारी चाहता है। और यहीं से शुरू हुआ एक ऐसा संबंध, जिसमें प्रेम कम, अपराध अधिक था।
काली बाबू बार-बार आने लगे। अब वह केवल ग्राहक नहीं थे—वह उसकी साँझ के हिस्सेदार बन गए थे। कभी वे अफ़ीम लेकर आते, कभी शर्बत में कुछ घोल कर। और त्रैलोक्या देखती थी कि कैसे उनका चेहरा हर शाम और धुंधला हो जाता है, और योजना साफ़।
“टीला,” एक रात उन्होंने कहा, “हम दोनों यहाँ सड़ने के लिए नहीं बने। तू समझदार है, खूबसूरत है। पर वक्त के साथ तेरे ग्राहक कम होंगे... और फिर क्या? मैं सोचता हूँ, क्यों न इस शहर से वसूल किया जाए?”
वह चुप रही। लेकिन वह जानना चाहती थी। और जानना ही पहला अपराध होता है।
काली बाबू ने पहली योजना बताई—“देख, अमीर बाबू आते हैं तेरे पास। हम उन्हें महँगी शराब पिलाएँगे, उसमें धतूरा घोलेंगे। फिर जब वो बेसुध होंगे, उनके पास से गहने, पर्स... सब गायब कर देंगे। सारा इल्ज़ाम? कहीं नहीं जाएगा। कौन पूछता है वेश्याओं के कोठे की बातें?”
त्रैलोक्या ने धीमे से पूछा, “अगर पकड़े गए तो?”
काली बाबू हँसे, “तू तो जानती है, पुलिस सबसे पहले तुझ पर शक करेगी, और तू उन सबकी... खैर, तू सब संभाल लेगी।“
और वही हुआ। अगले कुछ महीनों में कई बाबू लुटे, कुछ को होश नहीं रहा कि क्या हुआ, कुछ ने बात छिपा ली शर्म से।
फिर आया अगला स्तर—‘दुल्हन घोटाला’।
काली बाबू ने समझाया, “छोटे शहरों के ज़मींदारों को जवान बहुएँ चाहिए। हम एक लड़की को सजा-धजा कर भेजेंगे, उसके साथ झूठा विवाह होगा, और दो हफ्ते में वो सारा दहेज लेकर भाग आएगी।“
त्रैलोक्या ने कहा, “पर वो लड़कियाँ? वे कहाँ जाएँगी बाद में?”
काली बाबू ने पलकें झपकाईं, “सोनागाछी में ही, तेरे साथ बैठेंगी।“
एक दिन, एक ग्राहक को अफ़ीम की ज़्यादा मात्रा चढ़ गई। वह मरते-मरते बचा। कोठे पर पुलिस आई। माँ काँपी, दूसरी लड़कियाँ भागीं। लेकिन त्रैलोक्या ने सामने आकर कहा, “वो तो खुद शराब लाया था... कौन क्या घोले, हम थोड़े देखते हैं।“
पुलिसवाले हँसे, “तेरी ज़ुबान बहुत तेज़ है, बाई। कहीं ये ही हथकड़ी न बन जाए।“
लेकिन वह अब डरती नहीं थी। उसे लगने लगा था कि अपराध ही एकमात्र सुरक्षा है उस समाज में, जो उसे न ज़िंदा मानता है, न मरा।
उसी वर्ष, त्रैलोक्या ने एक छोड़े गए बच्चे को कोठे के बाहर रोते देखा। उसका नाम ‘हरि’ रखा गया। उसे गोद में उठाकर उसने कसम खाई—
“इसको मैं कुछ बनाकर दिखाऊँगी... चाहे इसके लिए जो करना पड़े।“
उस दिन के बाद, टीला बाई सिर्फ एक वेश्या नहीं रही। वह योजनाकार थी। वह अब अपने लिए नहीं, हरि के भविष्य के लिए अपराध करती थी।
और जब कोई औरत प्रेम में नहीं, बल्कि उत्तराधिकार की रक्षा में गिरती है—तब समाज को सबसे ज़्यादा डर लगता है।

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अध्याय 4: मनिकतला तालाब का खौफ़
(1880–83, कलकत्ता)
बंगाल की उमस भरी गर्मियाँ जब साँसों में घुलने लगती हैं, तो हर आदमी अपने भीतर के अंधेरे को ज़रा और गाढ़ा महसूस करता है। शहर के उत्तर-पूर्व छोर पर, जहाँ मनिकतला की पुरानी बस्ती थी, वहीं एक तालाब था—पेड़ों से घिरा, शांत, जैसे किसी ऋषि का तपोवन। मगर उस तपोवन की मिट्टी में अब किसी की साँसें दबी थीं।
त्रैलोक्या अब ‘टीला बाई’ नहीं थी। वह अब किसी कोठे की शृंगारिका नहीं, बल्कि एक नियंता थी—एक ठंडी आँखों वाली स्त्री, जिसकी मुस्कान में विनम्रता नहीं, गणना होती थी।
काली बाबू अब भी था, लेकिन अब वह उसके साथ नहीं चलता था—वह उसके पीछे चलता था। कोठे की लड़कियाँ अब उसे ‘टीला माँ’ कहने लगी थीं, और कोई नया ग्राहक या दलाल जब पहली बार आता, तो उसकी आँखें सबसे पहले उस महिला को खोजतीं जो कोने में बैठी हुक्का पीती थी और चुपचाप सब देखती थी।
पर भीतर, उसकी हुक्के की राख में चिंता और पसीने की बू थी। उम्र अब उसकी सबसे बड़ी दुश्मन बनने लगी थी। ग्राहक घटने लगे थे, आमदनी कम हो रही थी, और हरि अब जवान हो रहा था—जिसे वह किसी भी हालत में इस नरक का हिस्सा नहीं बनने देना चाहती थी।
एक रात, जब बिजली की मद्धम रौशनी में कोठे की गलियों में सन्नाटा पसरा था, त्रैलोक्या ने मनिकतला तालाब के बारे में सोचा। वह जगह अब भी वीरान थी, मगर वहाँ की मिट्टी और पानी लोगों में एक अफ़वाह की तरह फैली थी—कि वहाँ किसी साधु बाबा की पूजा से गहनों का ‘दुगना’ हो जाता है।
त्रैलोक्या ने उस अफ़वाह को योजना में बदला।
उसी रात, उसने कोठे की एक नई लड़की—कुसुम—to अपने पास बुलाया।
“कुसुम, तू मेहनती है। तुझे कुछ ज़्यादा कमाने का मन है?”
कुसुम सकुचाई। “जैसी माँ कहें...”
त्रैलोक्या ने मुस्कराकर उसका हाथ थामा। “कल चल, तुझे एक बाबा के पास ले चलूँगी। तेरे गहने दोगुने कर देंगे। दो दिन की कमाई एक घंटे में।“
अगले दिन, वे सुबह-सुबह तालाब पहुँचीं। हवा में धूप की गंध थी और पेड़ों से पत्तियाँ झर रही थीं। वहाँ पहले से एक साधु बैठा था—त्रैलोक्या का ही आदमी—जिसका चेहरा भस्म से ढँका था और आँखों में अधूरी श्रद्धा की नकल थी।
“बेटी, अपने गहने उतार दे। जल में स्नान कर। देवी की कृपा होगी,” उसने कहा।
कुसुम ने संकोच करते हुए गहने दिए और तालाब के सीढ़ियों की ओर बढ़ी।
“जल में उतर,” त्रैलोक्या ने कहा। “कमर तक। और मन में मंत्र बोल।“
कुसुम ने जैसे ही जल में कदम रखा, त्रैलोक्या ने पीछे से उसका सिर पकड़कर नीचे दबा दिया। एक... दो... तीन साँसें... और फिर शांति।
तालाब शांत था। पक्षियों की चहचहाहट थम गई थी।
वहाँ केवल हवा थी—और मृत्यु की मौन गंध।
त्रैलोक्या बाहर निकली, गहने लेकर साधु को सिर हिलाया और चुपचाप लौट आई।
यह पहली नहीं थी। फिर एक और लड़की—फिर एक और गहना—फिर एक और दबाया गया चेहरा।
एक दिन माँ ने पूछा, “इतनी लड़कियाँ क्यों गायब हो रही हैं?”
त्रैलोक्या ने आँखें नीची कर लीं, “भाग जाती हैं... नई लड़कियाँ होती हैं, डर जाती हैं... कोई घर लौटती है, कोई शहर भाग जाती है। कौन रोके?”
कोई नहीं रोकता था। क्योंकि कोई पूछता नहीं था। क्योंकि वे ‘वेश्याएँ’ थीं।
उनकी गैर-मौजूदगी भी उनके अस्तित्व की तरह ही तुच्छ थी।
पर एक दिन, एक लड़की बच निकली।
जगततारिणी।
त्रैलोक्या ने उसे भी उसी योजना में भेजा था। लेकिन जगततारिणी का शरीर मजबूत था। जैसे ही उसका सिर पानी में डुबोया गया, उसने पलटकर त्रैलोक्या के हाथ को काट लिया। वह भागी, भीगती, काँपती, मगर जीवित।
वह सीधे थाने पहुँची। और वहीं से शुरू हुआ वो अंत, जिसकी आहट त्रैलोक्या ने कभी भी अपने कानों में आने नहीं दी थी।

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अध्याय 6: अंतिम शिकार और पतन
(1884, कलकत्ता)
सर्दियों की एक रात थी। कोठे की छत पर ओस की बूँदें जमा हो रही थीं और हवा में एक अजीब-सी थकान थी—जैसे कोई लंबी यात्रा अब समाप्ति की ओर हो। त्रैलोक्या अब हर आवाज़ पर चौंक जाती थी। हर कोने में उसे जैसे साया दिखाई देता—पुलिस, मुखबिर, डर।
हरि अब सत्रह का हो चला था। उसका चेहरा तेजस्वी था, लेकिन वह अपनी माँ को ‘माँ’ नहीं, ‘टीला माँ’ कहता था। त्रैलोक्या जानती थी कि वह उसे आधा समझता है और आधा नहीं जानना चाहता। उसके भविष्य की चिंता अब उसके लिए केवल एक माँ की नहीं, एक अपराधिनी की चिंता थी—जिसे हर कदम अब पाप और प्रेम के बीच तोलना होता था।
कोठे पर एक नई लड़की आई थी—राजकुमारी। वह औरों से अलग थी—नरम आवाज़, हल्की हँसी, और उसकी आँखों में वैसी ही अनजान मासूमियत, जैसी कभी त्रैलोक्या के पास भी थी। शायद इसीलिए त्रैलोक्या ने उसे अपने पास ही रखा था। वह रात को त्रैलोक्या के पैरों में तेल लगाती, सिर दबाती, और अक्सर हरि के लिए मिठाई लाती।
पर समय के साथ, त्रैलोक्या को एक और डर लगने लगा—राजकुमारी का हरि के प्रति लगाव। एक रात उसने देखा, हरि और राजकुमारी छत पर बैठे बातें कर रहे हैं। उनके बीच की निकटता, वह मुस्कानें... कुछ चुभ गया उसे।
रात को, जब सब सो चुके थे, त्रैलोक्या ने राजकुमारी को अपने कमरे में बुलाया।
“तू हरि से दूर रह। वो तेरा नहीं है।“
राजकुमारी सकपकाई। “टीला माँ, मैंने कुछ नहीं किया। मैं तो बस... बस उसे भाई जैसा समझती हूँ।“
त्रैलोक्या की आँखों में कठोरता थी। “भाई? ये कोठा है, यहाँ रिश्ते नहीं होते—सिर्फ समझौते होते हैं।“
अगले दिन, त्रैलोक्या ने काली बाबू को बुलाया।
“गहनों की ज़रूरत है। एक आखिरी बार...”
काली बाबू ने सिर हिलाया, पर कहा कुछ नहीं।
रात ढलते ही, त्रैलोक्या राजकुमारी को लेकर मनिकतला के उसी तालाब पर पहुँची, जहाँ कई कहानियाँ पहले ही पानी में डूबी थीं।
राजकुमारी ने पूछा, “हम यहाँ क्यों आए हैं?”
“बाबा आए हैं,” त्रैलोक्या ने कहा। “तेरे गहनों में पूजा करवानी है। तेरे जीवन में उन्नति लानी है।“
राजकुमारी मुस्कराई, “टीला माँ, आपने मुझे माँ जैसा स्नेह दिया। आपकी बात नहीं टाल सकती।“
उसने अपने झुमके, हार, चूड़ियाँ उतारीं और तालाब के किनारे रख दीं। त्रैलोक्या ने उसका सिर सहलाया।
“अब जल में उतर, बेटा। जैसे पहले कहा था।“
राजकुमारी पानी में उतरी। उसका सिर झुकाया... और फिर...
पर त्रैलोक्या की बाँहें कांपने लगीं। उसका हाथ बढ़ा, पर डगमगाया।
राजकुमारी ने मुड़कर देखा, “क्या हुआ माँ?”
त्रैलोक्या की आँखों में पानी भर आया। वह आगे बढ़ी, जैसे उसे बाहर खींच लेगी, पर उसी पल झाड़ियों से आवाज़ आई—“रुको! पुलिस!”
लालटेन की रोशनी में इंस्पेक्टर प्रियनाथ उभरे, उनके पीछे चार सिपाही थे।
त्रैलोक्या ने घबरा कर पीछे हटने की कोशिश की, लेकिन एक सिपाही ने उसे पकड़ लिया।
“बहुत खेल हो गया टीला बाई। अब जवाब देना होगा।“
राजकुमारी काँपती हुई किनारे आई। वह कुछ समझ नहीं पा रही थी।
“हरि को मत छूना...” त्रैलोक्या ने चीखते हुए कहा।
प्रियनाथ ने कहा, “तो हरि ही है चाबी? चलो, वहीं से शुरू करते हैं।“
हरि को पकड़ लिया गया। एक कोठरी में बिठाकर उससे सवाल किए गए। पहले तो वह चुप रहा, फिर रो पड़ा।
“टीला माँ ने कभी मुझे बुरा नहीं किया... लेकिन मैं जानता हूँ, वो लड़कियाँ कहाँ जाती थीं... वो सब जानती थीं।“
त्रैलोक्या से जब हरि की गिरफ़्तारी की बात बताई गई, तो उसका चेहरा बुझ गया।
“मैं बताती हूँ,” उसने धीमे स्वर में कहा। “गहने कहाँ हैं, सब बताती हूँ। हरि को छोड़ दो।“
गहने बरामद हुए। पुलिस के पास अब साक्ष्य था। लेकिन अगले दिन, अदालत में, त्रैलोक्या ने अपने बयान से मुकरते हुए कहा—
“हम पर झूठा इल्ज़ाम है। हमने कुछ नहीं किया।“
पर अब बहुत देर हो चुकी थी। सबूतों की ज़ुबान उसके झूठ से ज़्यादा भारी थी।

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अध्याय 7: कोलकाता का ऐतिहासिक मुकदमा
(1884, कोलकाता सेशन कोर्ट)
कोलकाता के न्यायालय में उस दिन एक अजीब-सी चुप्पी थी—जैसे हवा भी रुककर सुनना चाहती हो कि पाप और प्रतिशोध की यह स्त्री आख़िर क्या कहेगी।
त्रैलोक्या, अब कैदी नंबर 47, सफेद साड़ी में, बिना गहनों के, एक टूटी हुई चोटी और बुझी हुई आँखों के साथ कटघरे में खड़ी थी। पर वह काँप नहीं रही थी। उसने जीवन की हर भयावहता का सामना किया था—अब अदालत की गवाही उसे डरा नहीं सकती थी।
जज ने केस नंबर 213/1884 को खोला। अभियोजन पक्ष ने तर्क रखे—“यह महिला न केवल वेश्यावृत्ति में संलिप्त रही है, अपितु धोखाधड़ी, विषवमन और हत्याओं की श्रंखला की सूत्रधार रही है। कम से कम पाँच महिलाओं की हत्या के साक्ष्य, एक छठी के बयानों और गहनों की बरामदगी के आधार पर, यह अपराध असंदिग्ध है।“
प्रियनाथ गवाह बने। उन्होंने तालाब का विवरण, शवविहीन हत्याओं की पुनरावृत्ति और हरि की स्वीकारोक्ति रखी। भीड़ में कानाफूसी हुई—एक माँ जिसने बेटे को बचाने के लिए हत्या कबूल कर ली थी।
अंत में, त्रैलोक्या से पूछा गया—“क्या आप अंतिम बयान देना चाहती हैं?”
त्रैलोक्या ने सिर उठाया। उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें कोई काँप नहीं थी।
“मैंने जो किया, वह सही नहीं था। पर क्या आपने कभी पूछा कि क्यों किया? जब मैं बारह साल की उम्र में विधवा हुई, तो किसने पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ? जब मुझे कोठे पर बेचा गया, तब किसने पूछा कि मैं कौन हूँ? मैंने खून किया... हाँ... पर क्या समाज ने पहले मेरी आत्मा को नहीं मारा था?”
सन्नाटा छा गया।
वह आगे बोली—“हरि मेरा बेटा नहीं था, पर मैंने उसे पाला। मैं नहीं चाहती थी कि वह उस नर्क में गिरे जहाँ से मैं आई थी। मैंने उसे बचाने की कोशिश की। अगर मेरा अपराध यही है, तो मैं अपराधिनी हूँ।“
कुछ देर के लिए न्याय की मूर्ति भी जैसे निःशब्द हो गई।
फैसला सुनाया गया—“आरोप सिद्ध होते हैं। आपराधिक षड्यंत्र, धोखाधड़ी, और हत्या के अपराध में आपको मृत्युदंड दिया जाता है।“
बाहर अखबारवालों की भीड़ थी। अगले दिन हर अखबार की हेडलाइन थी:
बंगाल की पहली महिला सीरियल किलर को फाँसी की सज़ा—सोनागाछी की राक्षसी या सामाजिक पीड़िता?
वहीं एक कोने में, कुछ वृद्धाएँ आपस में कह रही थीं—“उसे दोष दो या मत दो... पर वो औरत थी। औरत का जीवन ऐसे ही जलता है। उसने सिर्फ लौ की दिशा मोड़ दी थी।“

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अध्याय 8: फाँसी और एक विरोधाभासी विरासत
(1884, अलीपुर केंद्रीय कारागार)
आख़िरकार वह सुबह भी आई। जेल के ऊँचे दीवारों पर धुंध बैठी थी और खामोशी किसी प्राचीन ग्रंथ की तरह फैली थी—जिसमें मृत्यु की इबारत लिखी जाती है। अलीपुर जेल के गार्ड ने दरवाज़ा खोला और कहा—“त्रैलोक्या, चलो।“
त्रैलोक्या चुपचाप उठी। उसके पैर नंगे थे, लेकिन वह कांपी नहीं। उसके चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी—न वह पश्चाताप था, न अभिमान। वह बस समाप्त होने जा रही थी, और इस बार यह अंत किसी और के द्वारा तय किया गया था।
जल्लाद ने रस्सी तैयार की। पंडित ने अंतिम मंत्र पढ़े।
“कोई अंतिम इच्छा?” जेल अधीक्षक ने पूछा।
त्रैलोक्या ने सिर हिलाया। “हरि से कहिए... वो एक दिन खुद को मेरे कर्मों से अलग देख पाए, यही प्रार्थना है।“
फिर, वह मंच पर चढ़ गई। किसी ने रोका नहीं, किसी ने पुकारा नहीं।
रस्सी गले में डाली गई। ढोल नहीं बजे, न कोई स्त्री विलाप कर रही थी। बस एक घंटी बजी—और सब ख़त्म।
बाहर अखबारों में शोर था—
“टीला बाई को फाँसी—बंगाल को राक्षसी से मुक्ति!”
लेकिन हर कोने में वही राय नहीं थी। सोनागाछी के कोठों में उस दिन कोई संगीत नहीं बजा। कई वेश्याओं ने अपने दीपक नहीं जलाए। उन्होंने कहा—
“वो बुरी थी, पर हमसे अलग नहीं थी। वो भी तो हमारी तरह ही फेंकी गई थी। उसने लड़ाई की थी, गलत तरीके से सही... पर लड़ी तो थी।“
सालों बाद, जब सोनागाछी की गलियों में नई लड़कियाँ आतीं, और किसी बुज़ुर्ग स्त्री की आँखें उनके बचपन को पढ़तीं, तो किसी के होठों पर नाम आ ही जाता—“त्रैलोक्या...”
शहर ने उसे भूलने की कोशिश की। इतिहास ने उसे राक्षसी कहा।
पर किसी कोने में एक नाम फुसफुसाया गया—एक प्रश्न के साथ:
“कितना दोष उस औरत का था... और कितना उस व्यवस्था का जो स्त्री को पहले शिकार बनाती है, फिर अपराधी?”
और इस तरह, एक जीवन समाप्त हुआ। एक कथा नहीं।

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उपसंहार: इतिहास की नज़र में
त्रैलोक्या तारिणी का नाम अब इतिहास की किताबों में नहीं मिलता—न पाठ्यक्रम में, न स्मारकों पर। पर जब भी कोई स्त्री यह पूछती है कि समाज ने उसके लिए न्याय की परिभाषा कब लिखी थी, तब यह नाम फिर उभर आता है—स्मृति में नहीं, चेतना में।
वह अपराधिनी थी। यह सच है। उसके हाथ कई निर्दोषों के खून से रंगे थे। उसने छल किया, हत्या की, और जीवनों को समाप्त किया।
पर क्या यह सारा अपराध अकेले उसका था?
या वह पाप, उस पितृसत्तात्मक व्यवस्था की देन था—जिसने उसे बारह की उम्र में विवाह का बोझ दिया, तेरह की उम्र में विधवा बना दिया, और चौदह की उम्र में वेश्यावृत्ति में धकेल दिया?
क्या वह हत्यारिन थी... या वह एक स्त्री थी जिसने मरने से पहले कुछ वर्षों तक लड़ने का प्रयास किया—उसी समाज से जिसने उसकी हत्या उसके पहले ही कर दी थी?
इतिहास त्रैलोक्या को न्याय की भाषा में नहीं, चेतावनी की भाषा में याद करता है। वह उस गलती का नाम है जो समाज बार-बार करता है—किसी स्त्री को पहले बर्बाद कर, फिर उस पर पत्थर फेंकता है।
आज भी, जब सोनागाछी की गलियों में कोई नई लड़की चुपचाप आँसू पीते हुए कोने में बैठती है, तो एक वृद्धा उसकी पीठ सहलाते हुए कहती है—
“मत डर... त्रैलोक्या की कहानी याद कर। वो भी हम जैसी थी। फर्क बस इतना है, उसने जवाब दिया था।“
और शायद, यही उसकी सबसे बड़ी विरासत है—एक ऐसा नाम, जो अपराध में नहीं, प्रतिकार में अमर हुआ।

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यह कथानक पढ़ने के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद।
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