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त्रैलोक्या तारिणी

त्रैलोक्या तारिणी ✦ ऐतिहासिक साहित्यिक उपन्यास ✦ विनय कुमार पाण्डेय ‘चामुण्डा‘   समर्पण उन सभी स्त्रियों के नाम जो इस समाज की चुप्पी और अन्याय के बीच अपने हिस्से की चीख़ दबा गईं। और उन आवाज़ों के नाम, जो अब भी दीवारों के पीछे गूँजती हैं। ---   1850 के दशक के बंगाल में जन्मी एक नन्ही बालिका—त्रैलोक्या—समाज के काले कानूनों और पितृसत्ता की क्रूर परंपराओं के बीच पिसती है। विधवा बनकर बहिष्कृत, वेश्या बनकर बिकती है, और अंततः हत्यारिन बनकर इतिहास में दर्ज होती है। ‘त्रैलोक्या तारिणी’ एक ऐसी स्त्री की कालजयी कथा है जो अपने ज़ख्मों से एक युद्ध रचती है। यह उपन्यास पाठक को उस युग की गलियों में ले जाता है जहाँ हर स्त्री, या तो चुप रहती थी—या अपराधी बन जाती थी। सच्चाई, सहानुभूति और आक्रोश की एक त्रयी—जिसे पढ़ना केवल एक कहानी पढ़ना नहीं, बल्कि एक सवाल का सामना करना है। “क्या व्यवस्था भी हत्यारिन होती है?” --- प्रस्तावना: लेखक की ओर से जब मैंने पहली बार त्रैलोक्या तारिणी का नाम एक छोटे से समाचार आलेख में पढ़ा, तो वह एक अपराधिनी की तरह प्रस्तुत की गई थी—भारत की पहली महिला सीरियल किलर। ...

Popeye's Last Fight

With both Popeye and Tintin now in the public domain, it's the perfect time to celebrate these iconic characters in new and exciting ways. In "Popeye's Last Fight", we follow the legendary sailor on his final mission, driven by personal loss and a desire to protect his community. With a special appearance by the beloved journalist Tintin, who uncovers Popeye’s heroic story, this Bollywood-style revenge drama honors their public domain entry. Much like the worldwide success of Joker (the first part), which showed that a well-executed revenge story can deeply resonate with audiences, this tale captures the emotional intensity of one man's fight for justice. Popeye, an aging hero, confronts a corrupt drug syndicate that is tearing his town apart, leading to a gritty, heartfelt narrative of sacrifice and redemption. My plan was to write a longer story, and this was the plot summary. But decided to post this instead, as not able to commit myself for this project at thi...

सिगरेट - Hindi short story

मैं एटीएम से पैसे निकाल कर अस्पताल की तरफ आ रहा था। अचानक रास्ते में एक व्यक्ति ने मुझे आवाज दी, "अंकल, अंकल" मैंने उसकी तरफ देखा, तो उसने गिड़गिड़ाती हुई आवाज में कहा, "मेरे को हफनी है, दवा के लिए 20 रुपये दे दो।" एक पल को मैं समझ नहीं पाया कि क्या कह रहा है, पर यंत्रवत मेरे मुंह से निकला, "दवा वाले से मांगो।" और मैं अपने रास्ते चल दिया। मैंने पलट कर देखा तक नहीं कि वह वही खड़ा है या आगे चला गया। चंद कदम चलने पर मेरे अंदर दबी हुई इंसानियत ने धीरे से आवाज दी, "15 रुपये की सिगरेट पीने वाला 20 रुपये दे ही सकता था। क्या पता उसे सच में जरूरत हो।" आधी सिगरेट अभी भी मेरे हाथ में जल रही थी। अपनी अंतरात्मा की उस बात से मेरे अंदर के उस व्यवहारिक इंसान को चोट पहुंची जिसने उसे पैसे देने से माना किया था। उस अंतर्द्वंद की वजह से सिगरेट अब कसैली लगने लगी थी। मेरे अंदर के व्यवहार कुशल चालाक व्यक्तित्व ने मेरी इंसानियत एवं अंतरात्मा से कहा, "बात 20 रुपये की नहीं, व्यवहार और समझदारी की थी। मुझे नहीं पता वह आदमी कौन था। मेरे पर्स में 40 हजार रुपए थे अस्...

चीर हरण

“सखी, आज इतनी उदास क्यों बैठी हो?” कृष्ण ने द्रोपदी के समीप बैठते हुए प्रश्न किया।  “सखा, आप सर्वत्र ज्ञाता है, फिर भी क्यों पूछते है?”, दुखित स्वर में द्रोपदी ने उत्तर दिया। कृष्ण के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने अपने दोनों हाथों से द्रोपदी के चेहरे हो थामा और स्नेह पूर्वक कहा, “यदि बात करोगी तो शायद मन हल्का हो जाए, इसलिए पूछा है।” “आपको नहीं लगता की मृत्युलोक में आज भी औरतों को अपना सम्मान नहीं मिला है? आज भी उन्हें प्रताड़ित एवं अपमानित किया जाता है। पुरुष वर्ग आज भी या तो दुशाशन बनकर चीर हरण करता है, या फिर भीष्म पितामह की तरह चुप चाप देखता रहता है। मेरी रक्षा को तो आप आ गए थे, पर अब इन्हें कोई क्यों नहीं बचाता? क्या इनकी रक्षा आपका दायित्व नहीं है? क्या इतिहास में कृष्ण सिर्फ एक द्रोपदी की लाज बचाने के लिए याद किए जाएंगे? जबकि आज हजारों लाखों द्रोपदीयां अपनी लाज बचाने की नाकाम कोशिश कर रही है। हर दिन सकड़ों द्रोपदी चीर हरण का शिकार होती है। क्या जगत नारायण श्री कृष्ण का उनके प्रति कोई दायित्व नहीं है? क्या उनकी नियति में चीर हरण ही लिखा है?”, कहते कहते ...

अंतर्द्वंद

“मैं जा रही हूँ”, कहते हुए उसने उठने का उपक्रम किया। मैंने हिम्मत करके उसकी कलाई पकड़ ली। हमारे 2 वर्ष पुराने रिश्ते में मैंने पहली बार उसकी कलाई पकड़ी थी। वह एकबारगी चौक गई, और जल्दी से अपना हाथ छुड़ा लिया। “क्या करते हो? कोई देख लेगा तो?”, उसकी आवाज़ में स्पष्ट कंपन था।  “मुझे किसी की परवाह नहीं है। मैं तुम्हें इस तरह जाने नहीं दूंगा। चलो मेरे साथ कलकत्ता चलो।“ मैंने भी अपनी कांपती आवाज़ में कहा। ऊपर से मैं बहुत हिम्मत दिखा रहा था, परंतु अंदर ही अंदर एक द्वंद्व चल रहा था। कहा ले जाऊंगा? कैसे रखूँगा? मेरी तो अभी नौकरी भी नहीं लगी है। रहने को अपना घर भी नहीं है, गाव के कुछ लोगों के साथ बासा में रहने वाला उसे कहाँ रखूँगा। 

सुरक्षा भुगतान (Short story in Hindi)

एक  समय की बात हैं। एक राज्य में विदेश से एक व्यापारी आया। उसने राजा से वहाँ अपना व्यापार करने की अनुमति माँगी। राजा ने अनुमति दे दी एवं कहाँ कि उनके मंत्री इस राज्य में व्यापार करने के नियम बता देंगे। व्यापारी ने मंत्री से मुलाक़ात की एवं सभी नियम समझ लिए। उन नियमों के अलावा मंत्री ने उस व्यापारी को यह भी बता दिया था कि उस राज्य में व्यापार करने पर कुछ खास किस्म के कर देने पड़ेंगे, राजकीय अनुमति हेतु कर, उत्पादक गुणवत्ता जांच में पारित होने हेतु कर एवं सरकारी महकमों की अलग अलग किस्म की जांच से सुरक्षा हेतु कर। यह सभी कर अघोषित थे एवं बिना किसी रसीद के देने पड़ते थे। विदेशी व्यापारी ने सभी शर्तें मंज़र कर अपना व्यापार “निशाले” के नाम से शुरू किया। बहुत जल्दी ही उसका व्यापार चल निकला और लोग उसके बनाए उत्पादों को पसंद करने लगे। फिर वह व्यापारी विदेश से ही अपना यहाँ का व्यापार देखने लगा। यहाँ उसने कुछ अधिकारी नियुक्त कर दिये थे, जो उसके व्यापार की देखभाल करते थे। धीरे धीरे “निशाले” के नए नए उत्पाद बाज़ार में आने लगे, और लोगो में इन उत्पादों की प्रसिद्धि इतनी बढ़ गई ...

माँ (A short story in Hindi)

आज मेरे कलकत्ता प्रवास का आख़िरी दिन था। कल फिर ट्रेन पकड़ कर वापस मुंबई आना था और समान बांधने की तैयारी की जा रही थी। इस बार की छुट्टियों में और कुछ हुआ हो या नहीं, मुझे यह पता चल गया था कि मुझे शुगर और ब्लड प्रेशर दोनों है। अब दवाइयाँ शुरू हो चुकी थी और उम्र भर चलनी थी। माँ पिछले 3 घंटों से गायब थी। मैंने माना किया था कि इतनी दोपहर में कही जाने की जरूरत नहीं है। मैं मुंबई जा रहा था, वहाँ हर वह चीज़ मिलती है जो कलकत्ता में मिलती है। मैंने माँ को साफ़ कह दिया था की मैं समान नहीं बढ़ाऊँगा। फिर भी माँ कही बाहर निकाल गई थी। वह जानती थी कि यदि मुझे पता चला तो मैं जाने नहीं दूँगा, इसलिए चुप चाप बिना बताए चली गयी थी। इसी चक्कर में अपना मोबाइल भी नहीं ले गई थी। घर में सभी परेशान थे। मैं चिल्ला रहा था कि जो भी वो लाएगी बेकार जाएगा क्योंकि मैं कुछ भी ले जाने वाला नहीं हूँ। घर में सब मेरे गुस्से को जानते थे, इसलिए समझाने की कोशिश कर रहे थे। उनका कहना था कि माँ आख़िर माँ होती है, बस उस पर चिल्लाना मत। समान नहीं ले जाना है, मत ले जाओ, पर चिल्ला चिल्ली मत करना।  जब माँ आई तो मेरा गुस्सा ...

पच्चीस वर्ष बाद (Hindi Story)

आज सुबह की डाक से मिले पत्र ने मुझे चौंका दिया। पुरानी यादें ताज़ा हो गई।  मानस पटल पर चल-चित्र कि भाँति मेरे नागपुर में गुज़ारे दिन सामने आने लगे।  पच्चीस वर्ष पूर्व की वह सुबह जब चलती ट्रेन में मेरी उससे मुलाकात हुई। मेरी नई नई नौकरी लगी थी, और मैं कंपनी के काम से कुछ दिनों के लिए नागपुर जा रहा था। वह ट्रेन में बिलासपुर से नागपुर जाने के लिए चढ़ी थी। अचानक की हम दोनो में बातों का सिलसिला चल पड़ा और नागपुर तक का रास्ता बात करते करते ही कटा। हम नागपुर स्टेशन पर एक दूसरे का सामान लेकर इस तरह उतरे जैसे दोनो साथ साथ आए हो। मैं नागपुर पहली बार आया था, वह नागपुर में पढ़ती थी और उसे अपने होस्टल जाना था। उसने मुझे एक होटल तक पहुँचाया और अपने होस्टल चली गयी। जाते वक़्त फिर मिलने का आश्वासन था। मुझे आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हो रही थी। अपनी किस्मत पर भरोसा नहीं कर पा रहा था। 

जगत जननी दुर्गा मेरी माँ (A short story in Hindi)

आज पहली बार इतने सारे बच्चों को अच्छे अच्छे कपड़े पहने हुए खिलखिलाते और दौड़ते भागते हुए देख उसे आश्चर्य हो रहा था। अपने अनाथालय में बाकी के २५ बच्चों के साथ रहते हुए वह ख़ुश थी। वह भी खेलती कूदती थी उनके साथ। स्कूल भी जाती थी। परंतु यहाँ के बच्चों की ख़ुशी और उसकी ख़ुशी में बहुत अंतर था। यहाँ के बच्चों की ख़ुशी में एक अनजानी सी बेतकल्लुफ़ सी भावना थी, जैसे उन्हें किसी चीज़ की चिंता ही ना हो। बस कुछ चाहिए तो अपनी माँ के पास पहुँच कर जिद करने लगते थे। उसकी माँ तो थी नहीं, अतः यह एहसास भी एक नया सा था, की कोई ऐसा भी हो सकता है जो आपकी नाजायज़ जिद पर भी आपको प्यार से देखे और आपकी उस जिद को पूरा करे। यह नन्हें नन्हें बच्चे क्या जाने की उसके पास माँ तो ना थी, पर माँ जैसी भी कोई नहीं थी। अनाथालय में उन बच्चों की देखभाल करने वाली दीदी की उम्र भी इतनी नहीं थी की उसे वह माँ जैसी समझ पाती। वह दीदी हमेशा इस उधेड़बुन में लगी रहती थी की सभी बच्चों के पालन पोषण का इंतजाम कैसे हो। अनाथालय में ख़ुशियाँ तो थी, परंतु कल की चिंता भी छाई रहती थी उन ख़ुशियों पर। उसे भी पता था दीदी की मज़बूरियों के ...

अंतिम निर्णय (A short story in Hindi)

"उसकी आत्मा इस शरीर में कैद है। आप उसे मुक्ति दे दीजिए ताकि वो एक नया शरीर पा सके।" इन शब्दों ने रामलाल को अपने विचारों से बाहर खींचा। वो एक ऐसे प्रश्न का उत्तर ढूँढने की कोशिश कर रहे थे, जो कभी उत्तरित हुआ ही ना हो। कैसे एक पिता अपने जवान पुत्र के मृत्युनामे पर स्वीकृति दे सकता है? उनके सामने रखा था वह कागज़, जिसपर कृत्रिम श्वास नलिका हटाए जाने पर उन्हें स्वीकृति के हस्ताक्षर करने थे। हलके हवा के झोंके से वह कागज़ फड़फड़ा रहा था। मानो आत्मा शरीर से निकलने की कोशिश कर रही हो। उसी फड़फड़ाहट की आवाज़ के साथ सिनेमा के प्रोजैक्शन रूम में चली रही मशीन की तरह उनकी आँखों में चल-चित्र की भाँति चल रहा था उनके पुत्र का जीवन। बचपन की शरारत की झलकियों ने उनके चेहरे पर इस दुखद घड़ी में भी मुस्कान फेर दी। फिर जवानी की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी, देर रात तक घर से बाहर और अपने साथ हुई तू तू मैं मैं याद करते करते मन में एक बार फिर मोह से प्रेरित आवाज़ उठी। "नहीं, मैं अपने बेटे को नहीं मार सकता। वो अभी ज़िंदा है। वो ठीक हो सकता है। मुझे और कोशिश करनी चाहिए।"

होली का उपहार (A short story in Hindi)

कल होली है। आज ऑफिस से निकाल कर घूमते घूमते मुख्य बाज़ार तक पहुँच गया। मैं अपने घर से दूर यहाँ एक अनजान शहर में पिछले २ सप्ताह से पड़ा हुआ था। अकेले यहाँ किसके साथ होली खेलता? घर वाले तो फिर भी होली खेल ही लेंगे। बार बार मन में एक ही खयाल आ रहा था, यदि अभी मैं घर पर होता तो शायद बच्चों के साथ बाज़ार में होता। वो अपनी पसंद के रंग और पिचकारियाँ खरीदने के लिए जिद कर रहे होते, और मैं दुकान वाले से भाव ताव करके उनके लिए रंग-पिचकारी एवं अपने लिए गुलाल ले रहा होता। आजकल पिचकारियाँ भी तो अलग अलग तरह की आ गयी है। कुछ में तो पानी के लिए अलग से डिब्बे लगे हुए है।  सोचते सोचते मेरी निगाह रंग बिरंगी पिचकारियों से सजे दुकानों से होती हुई पास खड़े कुछ बच्चों पर पड़ी, जो बड़ी ही लालसा भरी निगाहों से उन दुकानों को देख रहे थे। कुल ५ बच्चे थे, तकरीबन ६ से ८ वर्ष की उम्र के। उनकी वेश भूषा देख कर ऐसा लगता था की वह बहुत गरीब परिवार से थे, या शायद भिखारी भी हो सकते थे। तुरंत ही मैंने अपने आप को दुरुस्त किया। यदि वो भिखारी होते तो दूर से ललचाई निगाहों से निहारने की बजाय वो दुकानों से ख़रीदारी करने वालो...

व्यंग चित्र (A short story in hindi)

"पापा, आज भी आप ऑफिस चल दिए? आपको याद हैं ना अपना वादा?" "हाँ बेटी, अच्छे से याद है, शाम को घर आकार आपके स्कूल के प्रोजेक्ट के लिए हम एक अच्छा सा चित्र बना देंगे।" "और पापा, मुझे वो आपके अख़बार वाले कार्टून जैसे चित्र नहीं चाहिए। मुझे वो अच्छे नहीं लगते हैं। पता नहीं क्यों आप ऐसे कार्टून क्यो बनाते है!" "बेटी, तुम अभी छोटी हो, जब थोड़ी बड़ी हो जाओगी तब समझ जाओगी। वो कार्टून बच्चों के लिए नहीं बड़ों के लिए होते है।" "पर बड़े लोग तो कार्टून पसंद नहीं करते! तभी तो अक्सर आपके बारे में भी बुरा भला कहते रहते है। फिर क्यों आप उनके लिए कार्टून बनाते हो?"

रेस्त्राँ (A Short Story)

बाहर बारिश हो रही थी। उस बारिश में दो बच्चे भीगते हुए नाच रहे थे। उनकी मस्ती बारिश की बूँदों के साथ इधर उधर छिटक रही थी। भीगने से बचने के लिए मैंने रेस्त्राँ के अंदर शरण ली। अंदर बैठते हुए एक चाय की मांग की। आज की घटनाओं से मेरा मन खिन्न हो चला था। उन दिनों कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा था। फिर आज का दिन तो शायद मेरे लिए बहुत ही खराब था। चाय के इंतज़ार में बैठे मेरा दिमाग अपने जीवन की परेशानियों उलझ गया।  वैसे तो अकेले बैठ कर बहुत सी अलग अलग कहानियाँ अपने आस पास देखने को मिलती है। परंतु रेस्त्राँ की उस भिड़ में भी मेरा मन कहीं और भटका हुआ था। 

गर्व

सर्दियों की वह अलसाई सुबह। ऐसा लग रहा था मानो सुबह भी देर तक सोना चाह रही हो। आकाश धीरे धीरे लाल उजाला फैलाने लगा था। मैं रात भर की अपनी नौकरी के बाद घर की ओर जा रहा था। कहने को सुबह में अलसायापन था। परंतु कुछ लोग अपने कार्यो में लग चुके थे। कही अख़बार वाले गट्ठर लेकर अपनी दुकान लगाने में जुटे थे, तो कही सफ़ाई वाले झाड़ू लेकर सड़क साफ़ कर रहे थे। मुंबई में सर्दियाँ हलकी फुलकी ही होती है। यहाँ दिल्ली वाली कड़ाके की ठंड नहीं पड़ती। फिर भी भोर में इतनी ठंड तो रहती है की आप अपने में सिमट जाए। 

तुशा – कहानियाँ भावनाओं की

आप सभी को नव वर्ष २०१५ की हार्दिक शुभकामनाएँ.  नव वर्ष के इस अवसर पर मैं अपना फेसबुक पेज तुशा आप लोगो के समक्ष रख रहा हूँ. मुझे लिखने का शौक़ हैं, परंतु कभी अपनी रचना को किसी के साथ साझा नहीं किया. गाहे बगाहे अपने ब्लॉग पर अपनी लिखी हुई कहानियाँ प्रेषित कर देता था. परंतु शायद ही किसी ने उन कहानियों को पढ़ा हो. गत वर्ष अक्टूबर के महीने में यह ख़याल आया की क्यों न फेसबुक पर एक पृष्ठ बनाया जाए, सिर्फ़ उन कहानियों के लिए. ब्लॉग पर तो कहानियों के अलावा और भी बहुत कुछ होता है. ऐसा प्रतीत हुआ की शायद मैं उन लिखे हुए शब्दों को राहत दूँगा, एक ऐसे मंच पर लाकर जहाँ बहुत से लोगो की पहुँच उन तक होगी. इससे पहले मुझे लगता था की शायद मेरा इस तरह से सभी के सामने उन कहानियों को लाना ठीक नहीं होगा. परंतु उन शब्दों में छिपे भावों को अगर मैं बंद रखता हूँ, तो यह उनके साथ अन्याय होगा. अपनी झिझक एवं शर्म को दरकिनार करते हुए यह फ़ैसला लिया गया की अब उन कहानियों को कैद में नहीं रखा जाएगा.

Interstellar – The story behind the story!

I have to admit, when I came out of this movie, I was confused, and thinking hard to find a logical sense to the story. One thought which came to my mind was that my thinking ability is of 3 dimensions and that’s the reason I am not able to logically conclude this 5 dimension story. But few hours later, and few brainstorming sessions with myself, I came up with a somewhat logical explanation on what could have happened in the background, not shown to us, but may have leads to this story-line.  Here, in this story behind the story of Interstellar, I am presenting the story which may have happened in the normal timeline, without the event shown in the movie. These timelines will lead to a situation where the movie would have started. Read on, to check what has happened in the actual timeline. 

कर्मठता (A short story in Hindi)

" रामलाल , मैं पिछले तीन दिनों से देख रहा हूँ , तुम बारिश में भी आकर गाड़ियाँ धोते पोंछते हो। बारिश में गाड़ी पोंछी या नहीं , किसने देखा है ?" " बाबू साहब , ये मेरा काम है। अगर बहाने ही बनाने है तो बारिश क्या और धूप क्या। कोई और देखे या ना देखे , मेरी अंतरात्मा देख रही होगी , मेरा ईश्वर देख रहा होगा। ऐसे में मैं अपने काम में कोताही कैसे बरत सकता हु ?" रामलाल की कर्मठता ने मुझे झकझोर के रख दिया जिसने अभी अभी ऑफिस फ़ोन करके बारिश के बहाने से आज की छुट्टी की थी। विनय कुमार पाण्डेय 13 J uly 2014

अमृत विष (Short story in Hindi)

होठों से गिलास लगा कर पीते वक़्त उसकी आँखों में वो सभी दृश्य एक चलचित्र की भाँति गुजर गए, जिनकी वजह से आज वो इस स्थिति में पहुँचा था। "तो क्या आफत आ गयी अगर तुमने मुझे किसी के साथ बिस्तर पर देख लिया? कभी अपने गिरेबान में भी झाँक कर देखो और कहो की तुमने कभी मुझे धोका नहीं दिया?" "भइया अब मैं क्या कहु, आप चाहे तो मैं कुछ पैसे आपको दे सकता हूँ, पर आपने ख़ुद बिना देखे हस्ताक्षर किया है तो मुझे दोष क्यों दे रहे है?" गिलास खाली हो चूका था और साथ में आँखों के आगे चलता चलचित्र भी रुक गया था। अब आँखे भारी हो रही थी, जिस्म भी शिथिल पड़ रहा था, परंतु उसकी आँखों में एक सुकून था। “अब मैं किसी को शिकायत का मौका नहीं दूँगा।” विनय कुमार पाण्डेय १७ मार्च २०१४

मुझे मांफ कर देना (a very short story in hindi - Mujhe Maaf Kar Dena)

"मुझे माफ़ कर देना", ये सुनते ही मानो मेरे अंदर एक करंट सा दौड़ गया। सारे मतभेदों के बावजूद, अपने पिता को ख़ुद से माफ़ी माँगते देख मानो मुझ पर घड़ों पानी पड़ गया हो। “आप ऐसा क्यों कह रहे है पापा, आप क्यों माफ़ी माँगेंगे? सारी गलती मेरी है और आप माफ़ी मांग रहे है?” मैं सिर्फ़ इतना ही कह पाया। उस क्षण ये अहसास हुआ की मेरे अंदर अपने पिता के लिए कितना प्रेम एवं सम्मान भरा था। मतभेदों की वजह से वो कुछ दब सा गया था। पर आज सारे बांध टूट गए थे। पिता के एक वाक्य ने मुझे अंदर तक झकझोर कर वो दबा हुआ प्रेम और सम्मान बाहर निकाल दिया था। अब और अनादर नहीं कर सकता मैं अपने पिता की। बस यही एक बात रह गयी थी मेरे दिलो दिमाग में। अब कोई मतभेद या दुराव भरी बात याद ना रही। जी चाहा की उनके पैरों पर गिरकर माफ़ी मांग लू। पर सिर्फ़ रोते हुए उनके गले ही लग पाया। दोनों की आँखों से बहते आंसू हमारे मतभेदों को जाने कहा बहा ले गए। - विनय कुमार पाण्डेय 26 मार्च 2014 Binay Kumar Pandey 26 March 2014

भय (Fear - a short story)

"क्या ये संभव है? मुझे तो यह संभव ही नहीं लगता है|" मैंने कह तो दिया, पर मुझे स्वयं अपनी आवाज़ खोखली लगी| मानो मैं स्वयं को बहलाने की नाकाम कोशिश कर रहा था| पर क्या करता| मुझे किसी भी हालत में पैसों का इंतजाम होता नहीं दिख रहा था| डॉक्टर ने साफ़ साफ़ कह दिया था की बिना पैसों के वो कुछ नहीं कर सकता| आज जब एक उम्मीद की किरण दिखायी दी भी तो उसमें खतरा बहुत था| उसके कितना भी कहने पर भी मुझे ये काम संभव नहीं लग रहा थ| मैं जानता था की भले ही यह काम संभव ना लगे, मेरे पास इसमें शामिल होने के अलावा कोई चारा नहीं था| जब मेरे प्रश्न की कोई प्रतिक्रिया ना हुई, तो मुझे हाँ करनी पड़ी| दस दिनों के बाद मुझे जेल में ख़बर लगी की इलाज ना होने की वजह से वो चल बसी| अब मेरी आँखों के सामने छाया अँधेरा छंट चुका था| मैंने लगभग संतोष की साँस ली| अब मुझे जेल या फाँसी की सजा का कोई भय नहीं था| मैं हंस पड़ा| दस दिनों पहले उसके इलाज ना होने के जिस भय ने मुझे जेल में डाला था, आज उस भय से छुटकारा मिल गया था| आज जेल में होते हुए भी मैं अपने को आज़ाद समझ रहा था| - विनय कुमार पाण्डेय 1 अप्रैल 20...