कल होली है। आज ऑफिस से निकाल कर घूमते घूमते मुख्य बाज़ार तक पहुँच गया। मैं अपने घर से दूर यहाँ एक अनजान शहर में पिछले २ सप्ताह से पड़ा हुआ था। अकेले यहाँ किसके साथ होली खेलता? घर वाले तो फिर भी होली खेल ही लेंगे। बार बार मन में एक ही खयाल आ रहा था, यदि अभी मैं घर पर होता तो शायद बच्चों के साथ बाज़ार में होता। वो अपनी पसंद के रंग और पिचकारियाँ खरीदने के लिए जिद कर रहे होते, और मैं दुकान वाले से भाव ताव करके उनके लिए रंग-पिचकारी एवं अपने लिए गुलाल ले रहा होता। आजकल पिचकारियाँ भी तो अलग अलग तरह की आ गयी है। कुछ में तो पानी के लिए अलग से डिब्बे लगे हुए है। सोचते सोचते मेरी निगाह रंग बिरंगी पिचकारियों से सजे दुकानों से होती हुई पास खड़े कुछ बच्चों पर पड़ी, जो बड़ी ही लालसा भरी निगाहों से उन दुकानों को देख रहे थे। कुल ५ बच्चे थे, तकरीबन ६ से ८ वर्ष की उम्र के। उनकी वेश भूषा देख कर ऐसा लगता था की वह बहुत गरीब परिवार से थे, या शायद भिखारी भी हो सकते थे। तुरंत ही मैंने अपने आप को दुरुस्त किया। यदि वो भिखारी होते तो दूर से ललचाई निगाहों से निहारने की बजाय वो दुकानों से ख़रीदारी करने वालों लोगो से भीख मांग रहे होते। वह गरीब तो लग रहे थे, पर भिखारी नहीं। शायद उनके माँ-पिता इतना नहीं कमाते होंगे की महँगी पिचकारियाँ ले सके।
मेरे देखते देखते ही उनमें से एक बच्चा दौड़ कर पास बैठे सब्ज़ी वाले के पास गया। कुछ देर बात करने के बाद वह कुछ उदास सा वापस अपने बाकी साथियों के पास आ गया। बिना कुछ सुने भी मैं यह समझ गया था की बच्चे ने जाकर रंग या पिचकारी के लिए जिद की होगी, और सब्ज़ी वाले ने, जो शायद उस बच्चे का पिता होगा, माना कर दिया होगा। अनायास ही मुझे अपने बच्चे याद आ गए। उनकी ख़रीदारी हो चुकी है। मेरे बाहर रहने की वजह से इस बार वो अपनी माँ के साथ गए थे।
मन ही मन एक निश्चय करके मैं दुकान में गया। अलग अलग तरह की ५ पिचकारियाँ और कुछ रंग खरीद कर, मैं बाहर निकला। टहलते टहलते मैं सब्ज़ी वाले के पास पहुँचा और पूछ लिया, "क्या वो आपके बच्चे है?"
"जी, २ मेरे और बाकी के ३ मेरे पड़ोसियों के है। क्या उन्होंने आपको परेशान किया है?"
"जी नहीं, मैंने तो ऐसे ही पूछ रहा था। बड़े प्यारे बच्चे है। यहाँ खड़े होकर शायद अपने लिए पिचकारियाँ पसंद कर रहे है। अभी एक आपके पास आया था, सो मैंने सोचा आपसे पूछ लू।"
"साहब, ये महँगी महँगी पिचकारियाँ हमारे औकात में कहाँ है?"
"यदि आप बुरा ना माने तो एक बात कहूँ?"
"जी कहिए साहब"
"मैं यहाँ इस अनजान शहर में कुछ काम के चक्कर में रुका हुआ हूँ। मेरे बच्चे और परिवार अपने घर पर होली मना रहे है और मैं यहाँ अकेले पड़ा हूँ। मैंने अपने बच्चों के लिए कुछ रंग पिचकारी लिया था। मुझे उम्मीद थी की मैं होली से पहले अपने घर पहुँच जाऊँगा। पर काम की वजह से अभी कुछ और दिन यहाँ रुकना पड़ेगा। यदि आपको बुरा ना लगे तो ये होली का सामान अपने बच्चों को दे दीजिए।" कहते हुए मैंने दुकान से लिया हुआ थैला उसकी ओर बढ़ा दिया।
कुछ पल तक वह कुछ नहीं बोला, शायद मेरी कही बातों को समझने की कोशिश कर रहा था। मैंने जान बूझकर यह बहाना बनाया था, ताकि मेरी भेंट उसे भीख ना लगे।
थैला मेरे हाथों से लेते हुए, उसने भरे गले से मेरा शुक्रिया कहा। फिर मेरे बार बार मना करने और यह बताने के बाद भी कि मैं होटल में रहता हूँ और मुझे सब्ज़ी कि कोई जरूरत नहीं है, उसने एक थैले में मुझे गाजर भर कर दे दिया। उसका कहना था कि गाजर को वैसे भी खाया जा सकता है, और यदि उसके पास कोई और फल होता तो वह भी अवश्य देता।
वह से हटने के पश्चात मैं थोड़ी दूर से खड़े होकर आगे कि घटनाएँ देखने लगा। उसने मेरे जाने के बाद बच्चों को बुलाया और उन्हें थैले से निकाल निकाल कर पिचकारियाँ देने लगा। बच्चे इतनी ज़ोर से चिल्ला रहे थे कि मुझे दूर से ही उनकी किलकारियाँ सुनाई दे रही थी। उन किलकारियों को सुनकर मुझे ऐसा लगा मानो मेरे स्वयं के बच्चों कि किलकारियाँ है। अब मुझे अपने घर और बच्चों से दूर होने का दुख कुछ कम होता लग रहा था। होली की ख़ुशी और त्योहार वाला आनंद अब अपना एहसास दिला रहा था। मैंने घर पर फ़ोन किया और बच्चों से बातें करते हुए होटल की ओर चल दिया।
विनय कुमार पाण्डेय
६ मार्च २०१५
Comments