"उसकी आत्मा इस शरीर में कैद है। आप उसे मुक्ति दे दीजिए ताकि वो एक नया शरीर पा सके।"
इन शब्दों ने रामलाल को अपने विचारों से बाहर खींचा। वो एक ऐसे प्रश्न का उत्तर ढूँढने की कोशिश कर रहे थे, जो कभी उत्तरित हुआ ही ना हो। कैसे एक पिता अपने जवान पुत्र के मृत्युनामे पर स्वीकृति दे सकता है?
उनके सामने रखा था वह कागज़, जिसपर कृत्रिम श्वास नलिका हटाए जाने पर उन्हें स्वीकृति के हस्ताक्षर करने थे। हलके हवा के झोंके से वह कागज़ फड़फड़ा रहा था। मानो आत्मा शरीर से निकलने की कोशिश कर रही हो। उसी फड़फड़ाहट की आवाज़ के साथ सिनेमा के प्रोजैक्शन रूम में चली रही मशीन की तरह उनकी आँखों में चल-चित्र की भाँति चल रहा था उनके पुत्र का जीवन।
बचपन की शरारत की झलकियों ने उनके चेहरे पर इस दुखद घड़ी में भी मुस्कान फेर दी। फिर जवानी की तेज़ रफ़्तार ज़िंदगी, देर रात तक घर से बाहर और अपने साथ हुई तू तू मैं मैं याद करते करते मन में एक बार फिर मोह से प्रेरित आवाज़ उठी।
"नहीं, मैं अपने बेटे को नहीं मार सकता। वो अभी ज़िंदा है। वो ठीक हो सकता है। मुझे और कोशिश करनी चाहिए।"
तभी उनकी आँखों के आगे वो एक्सिडेंट घूम गया जिसके चलते आज उनका जवान बेटा अस्पताल में कोमा में पड़ा था। डॉक्टर का कहना था की अब उसके वापस आने की कोई उम्मीद नहीं थी। अस्पताल की मशीनों के चलते उसकी धड़कन चल रही थी, परंतु डॉक्टरों का कहना था कि उसका दिमाग मृत हो चुका था। पिछले 3 महीनों से कई डॉक्टर उसे देख चुके थे, कई बाहर के विशेषज्ञों कि राय भी ली जा चुकी थी। सबकी एक ही राय थी, अब वह वापस नहीं आ सकेगा। जब कही से भी आशा कि कोई किरण नहीं दिखी तब उनके पारिवारिक चिकित्सक ने उन्हें यह सलाह दी, जिसपर पिछले 2 हफ़्ते से वह विचार कर रहे थे। सलाह देने वाले तो अपनी अपनी बात कह चुके थे, परंतु उन्हें क्या पता कि एक पिता के लिए यह कितना कठिन निर्णय है।
उनके मन में कई विचार आ रहे थे।
"माना कि उसे इस अवस्था में मशीनों के सहारे जीवित रखना बहुत ख़र्चीला है, पर क्या मूल्य है जीवन का? क्या सिर्फ़ खर्च को देखते हुए इंसान के जीवन मरण का फ़ैसला किया जा सकता है?"
"यदि मैं इस अवस्था में होता, और यह निर्णय मेरे बेटे को लेना होता, तो वह क्या करता?"
"कल यदि उसे स्वस्थ करने हेतु कोई इलाज़ निकाल आए तो क्या वह अपने आप को क्षमा कर सकेंगे?"
ऐसा नहीं था की सिर्फ़ एक तरफ की आवाज़ें आ रही थी। उनके मस्तिष्क में विपरीत विचार भी वैसे ही घुमड़ रहे थे।
"कहा से आएँगे इतने पैसे? अब तो अधिक कुछ बचा भी नहीं है हमारे पास।"
"कब तक ऐसे ही खर्च उठाते रख सकेंगे?"
इन्हीं विचारों के बवंडर में डूबते उतराते हुए वह बैठे थे, जब उन्हें यह आवाज़ सुनाई दी।
"उसकी आत्मा इस शरीर में कैद है। आप उसे मुक्ति दे दीजिए ताकि वो एक नया शरीर पा सके।"
सर उठा कर देखा तो सामने एक गेरुआ वस्त्र धारी साधु खड़ा था।
"आपके पुत्र की आत्मा अभी भी सही सलामत है, एवं अपने इस शरीर में कैद है। जो कुछ भी नुकसान हुआ है, वह सिर्फ़ इस नश्वर शरीर का हुआ है। आत्मा तो अमर है, परंतु उसे भी भौतिक संसार में रहने हेतु एक शरीर की आवश्यकता पड़ती है।" साधु कहते गए। "यह शरीर उसकी आत्मा का वाहन था। परंतु आज यह शरीर किसी कार्य के लायक नहीं रहा। अब उसकी आत्मा इस शरीर में कैद है, जिसे सिर्फ़ आप निकाल सकते है। "
"परंतु वह मेरा पुत्र है। ऐसे कैसे मैं उसे जीते जी मार डालु।"
"आप बहुत भोले है रामलाल जी। क्या यह भी बताना पड़ेगा की आपका पुत्र उसकी आत्मा है, और आप उसकी आत्मा के बजाय एक नश्वर शरीर के पीछे पड़ गए है। शरीर के रिश्ते शरीर के साथ चले जाते है, परंतु आत्मिक रिश्ते शरीर के नष्ट होने के पश्चात भी जीवित रहते है। आज यदि आपका शरीर मृत हो गया होता तो क्या आपका पुत्र अपने मोह माया में पड़ कर उसकी अंत्येष्टि नहीं करता? क्या उस मृत शरीर को अपने पास रखे रहता?"
"परंतु वह मरा कहा है? वह तो अभी जीवित है।"
"उसका शरीर मर चुका है, सिर्फ़ कुछ मशीनों की सहायता से उसे ज़बरदस्ती जीवित रखने की कोशिश की जा रही है। आत्मा के लिए शरीर एक वाहन की तरह होता है। यदि वाहन खराब हो जाये, तो आप उसमें बैठे नहीं रहते, बल्कि बाहर निकाल कर दूसरे वाहन की तलाश करते है। यहाँ आपके मोह माया ने उसे उस मृत वाहन में कैद कर रखा है। यदि आप आज्ञा दे दे, तो वह एक नए वाहन में अपनी यात्रा जारी रख सकता है।"
साधु एक क्षण रुके, पुनः कहना प्रारंभ किया, "रामलाल जी, अपने पुत्र को विदा कीजिए, उसे अपने नए जीवन की ओर बढ़ना है। आपके साथ उसका यही तक का साथ था, इस सच्चाई को स्वीकार करे।"
"आप साधु है, मोह माया एवं सांसारिक बंधनों से मुक्त। आपको क्या पता मेरे हृदय पर क्या बीत रही है। आपने तो कह दिया की उसे विदा करूँ, सच्चाई को स्वीकार करूँ, परंतु कैसे? और उसकी माँ को क्या कहूँगा? भूल जाये अपने उस पुत्र को जिसे लाड़ प्यार से इतना बड़ा किया? जिसके एक खरोंच पर हमारी आँखो में आँसू आ जाते थे, उसे स्वयं अपने हाथों से चिता के सुपुर्द कर दे?" कहते कहते रामलाल की आँखे भर आई थी।
"नहीं, अपने पुत्र को भूलने की आवश्यकता नहीं। उसे याद रखे, उसकी यादों को सर्वदा अपने हृदय में रखे। परंतु अंदर लेटा शरीर आपका पुत्र नहीं, एक मिट्टी का पुतला है, और कुछ मशीनों के सहारे आपने अपने आप को बहलाया हुआ है की आपका पुत्र अभी भी आपके पास है। यह पुत्र मोह नहीं, स्वार्थ है। इतने वर्षों में आपने जो यादें इकट्ठा की है, उन्हें अपने पास रखिए, अपने पुत्र को उन यादों से मत बाँधिए। मुक्त कर दीजिए अपने पुत्र को, उसकी यादों को जीवित रखे, परंतु उसे अब अपने मोह से मुक्ति दे दीजिए। वह अपनी नयी दुनिया में जाना चाहता है। एक उन्मुक्त पंक्षी की भाँति खुले आकाश में उड़ना चाहता है। जैसे एक पंक्षी अपने बच्चों को बड़े होने पर मुक्त कर उन्हें अपने लिए एक नया संसार बनाने भेज देता है, वैसे ही आज आपका पुत्र आपको आस लगाए देख रहा है, अपनी मुक्ति की आस लगाए।"
रामलाल ने काँपते हाथों से हस्ताक्षर किया और बिलख बिलख कर रो पड़ा। उसने आज तक अपनी आँखों को भीगने नहीं दिया था। अपनी पत्नी को सँभालने के लिए उसने आपने आँसुओं को दबा लिया था। आज वह बांध टूट गया और आँसुओं का सैलाब बह निकला था। पता नहीं ऐसे ही बिलखते हुए कितना समय बीत गया। ऐसा प्रतीत होता था मानो सदिया बीत गयी हो। अचानक उसके कानों में अपने बेटे की आवाज़ गूँजी, "थैंक यू, पापा।"
चौक कर उसने सर उठाया तो ऐसा लगा मानो उसका पुत्र उस साधु के वेश में सामने खड़ा है। रामलाल की आँखे आँसुओं से धुँधलाई हुई थी। उसने अपनी आँखे साफ़ की और दुबारा देखा। सामने कोई नहीं था। गलियारा खाली था। वह दौड़ कर गलियारे के सिरे तक गया, वहाँ भी कोई नहीं था। वापस आ कर उसने अपने पास बैठे व्यक्ति से पूछा, "जी आपने उस साधु को जाते हुए देखा होगा। वो किस तरफ गए है?"
"जी यहाँ तो पिछले 2 घंटे से कोई नहीं आया है। सिर्फ़ आप और मैं बैठे है।" उस व्यक्ति ने उत्तर दिया।
यह सुनकर रामलाल पास रखी कुर्सी पर बैठ गया। उसे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। धीरे धीरे उसके आँसू सूख कर गालों पर टेढ़े मेढ़े निशान छोड़ विलुप्त होने लगे। अब आँखों में आँसुओं की जगह एक सुकून था। उसे समझ आ गया था की उसने वही किया था जो उसके पुत्र की मंशा थी। वह साधु और कोई नहीं, उसका पुत्र ही था।
विनय कुमार पाण्डेय
१६ मार्च २०१५
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