“सखी, आज इतनी उदास क्यों बैठी हो?” कृष्ण ने द्रोपदी के समीप बैठते हुए प्रश्न किया।
“सखा, आप सर्वत्र ज्ञाता है, फिर भी क्यों पूछते है?”, दुखित स्वर में द्रोपदी ने उत्तर दिया। कृष्ण के चेहरे पर हल्की सी मुस्कान दौड़ गई। उन्होंने अपने दोनों हाथों से द्रोपदी के चेहरे हो थामा और स्नेह पूर्वक कहा, “यदि बात करोगी तो शायद मन हल्का हो जाए, इसलिए पूछा है।”
“आपको नहीं लगता की मृत्युलोक में आज भी औरतों को अपना सम्मान नहीं मिला है? आज भी उन्हें प्रताड़ित एवं अपमानित किया जाता है। पुरुष वर्ग आज भी या तो दुशाशन बनकर चीर हरण करता है, या फिर भीष्म पितामह की तरह चुप चाप देखता रहता है। मेरी रक्षा को तो आप आ गए थे, पर अब इन्हें कोई क्यों नहीं बचाता? क्या इनकी रक्षा आपका दायित्व नहीं है? क्या इतिहास में कृष्ण सिर्फ एक द्रोपदी की लाज बचाने के लिए याद किए जाएंगे? जबकि आज हजारों लाखों द्रोपदीयां अपनी लाज बचाने की नाकाम कोशिश कर रही है। हर दिन सकड़ों द्रोपदी चीर हरण का शिकार होती है। क्या जगत नारायण श्री कृष्ण का उनके प्रति कोई दायित्व नहीं है? क्या उनकी नियति में चीर हरण ही लिखा है?”, कहते कहते द्रोपदी का चेहरा क्रोध में तमतमा उठा था। पर कृष्ण के चेहरे की मुस्कान और गहरी हो चली थी। “सखी, यह प्रश्न हर युग में उठा है। परंतु अभी समय नहीं आया है। जब समय आएगा, तो इन पापियों का नाश निश्चित है।”
“क्या समय आने के इंतजार में इन नारियों पर अत्याचार होने देना उचित है सखा? और वह समय कब आएगा जब आप उन्हें बचाएंगे? क्या समय आने तक यह नारियां बचाने के काबिल भी रह पाएगी?” द्रोपदी अब गंभीर हो चुकी थी। क्रोध ने गंभीरता का रूप ले लिया था। उसे अपने सखा पर पूर्ण विश्वास था, पर अपने प्रश्न का उत्तर जानने की उत्सुकता भी थी।
“जब धर्म की हानि होती है, और पापियों का नाश आवश्यक हो जाता है, जब यह प्रतीत होता है कि मनुष्य अपने आप एवं अपने धर्म समाज को बचा पाने में असमर्थ हो चला है, तब कह सकती हो कि समय आ गया। परंतु अभी भी वह स्थिति नहीं आई है।”, कृष्ण ने सहज स्वर में उत्तर दिया।
“आप भी पुरुष हो सखा, शायद इसलिए आपको अभी स्थिति इतनी बुरी नहीं लग रही है। क्या उन नारियों कि चीख आपको सुनाई नहीं देती? क्या बदला है मेरे युग से लेकर आज तक? आज भी नारी उसी स्थिति में है जिस स्थिति में मैं थी। क्या यह ऐसे ही चलता रहेगा?”
“तुम्हें क्या लगता है, नारी कि स्थिति आज भी तुम्हारे युग जैसी है?” इस बार कृष्ण के स्वर में गंभीरता थी, “तुम पांचाली थी, पांचाल नरेश की पुत्री, एक राजा की पुत्री, फिर भी तुम्हारा अपना सम्मान क्या था? एक प्रतियोगिता में तुम्हें विजय कर पाँच पांडव तुम्हारे पाँच पति बन गए। क्या तुम्हारी रजामंदी थी उसमे? नहीं! फिर एक दूसरे खेल में तुम्हें फिर से दाव पर लगा दिया गया। इस बार दुर्योधन ने तुम्हें जीत लिया। एक राजा की पुत्री पहले अपने पिता फिर अपने पति द्वारा खेल में दाव पर लगाई जाती है। यह थी तुम्हारी स्थिति। इन सब अत्याचारों के पश्चात भी तुम्हें अपने उन्ही पाँच पतियों के भरोसे रहना पड़ता है। सोच सकती हो कि जब एक राजा की पुत्री इतनी बेबस हो सकती है तो साधारण नारियों का क्या हाल होगा!”
“तो आपको क्या लगता है आज की नारी मेरी तरह बेबस नहीं है? जो कुछ हो रहा है शायद आप उसे देख कर भी अनदेखा कर रहे है।”, द्रोपदी के स्वर में हल्का क्रोध स्पष्ट झलक रहा था। शायद उसे कान्हा का उसकी बेबसी याद दिलाना पसंद नहीं आया था।
“किसी भी परिवर्तन को समय लगता है। आज की नारी आक्रामक रूप से आगे बढ़ रही है। आज कोई ऐसा कार्य क्षेत्र नहीं जहां नारी ने अपने कदम ना रखे हो। इस युगों युगांतर से चले आ रहे पुरुष प्रधान समाज में उसने अपनी एक अलग पहचान बनाई है। आज वह द्रोपदी कि तरह अपने पिता या पति पर आश्रित नहीं वरन आत्मनिर्भर है। आज तो कई पिता या पति अपनी पुत्री व पत्नी पर आश्रित है। आज नारी ने कई घर में कर्ता का स्थान ले लिया है। यह परिवर्तन अब अनिवार्य हो चला है। पुरुष प्रधान समाज इस नारी शक्ति के समक्ष जल्दी ही घुटने टेक देगा। परंतु जैसा मैंने कहा, परिवर्तन तुरंत नहीं होता है। उसमें समय लगता है। यदि तुम्हें स्मरण हो, महाभारत का 18 दिनों के युद्ध के लिए भी बहुत समय लगा था। वह कई वर्षों तक चल रहे परिवर्तन के पश्चात उस युद्ध की स्थिति में पहुंचा था, जहां अधर्म पर धर्म की विजय होनी थी। मैंने तुम्हारी लाज बचाई थी, पर क्या मैं दुर्योधन द्वारा किए गए अन्य अत्याचारों से तुम्हें, तुम्हारे पतियों या फिर उस समय की आम जनता को बचा पाया था? मुझे भी सही समय का इंतजार करना पड़ा था। जब तक कौरवों के अत्याचार असहनीय नहीं हो गए तब तक तुम्हारे पति युद्ध के लिए तैयार नहीं थे। यदि मेरे कहने भर से वह युद्ध के लिए तैयार हो भी जाते, तब भी उनकी पराजय निश्चित थी। उन्हें उन सभी राजाओं का समर्थन प्राप्त नहीं होता, और वह अपनी पूर्ण शक्ति से अपने ही प्रियजनों एवं गुरुजनों से युद्ध नहीं करते। मैं मानता हूँ कि आज भी नारी पूर्ण रूप से अपनी बेबसी और पिता/पति/पुत्र के सहारे कि आवश्यकता से बाहर नहीं निकाल पाई है। आज भी उसपर अत्याचार हो रहा है। पर इसी अत्याचार की वजह से उनमें वह परिवर्तन आएगा, जिसकी मुझे आवश्यकता है। एक ऐसा उन्माद, एक ऐसा उत्साह जिसकी वजह से उन्हें अपने प्रियजनों से भी अपनी मुक्ति की लड़ाई लड़ने में झिझक नहीं होगी। जब नारी अपने अंदर की शक्ति को पहचानेगी, और अपनी सभी बेड़ियों को तोड़ कर हमेशा के लिए मुक्त हो जाएगी। नारी आदि शक्ति का प्रतीक है, और तुम्हें पता है सखी, की आदि शक्ति के समक्ष तो मेरी भी शक्तियाँ कुछ नहीं है। बस जिस क्षण नारी ने अपने अंदर की शक्ति को जागृत कर लिया, उस क्षण समझ लेना कि इस युग का युद्ध शुरू हो गया है। इस युग का युद्ध पुरुष प्रधान समाज एवं नारी मुक्ति के मध्य होना निश्चित है। बस सखी, तुम सही समय कि प्रतीक्षा करो।”, कृष्ण के स्वर में गंभीरता होते हुए भी अधरों पर उनकी चित परिचित मुस्कुराहट थी। द्रोपदी को अपने सखा पर अविश्वास करने की अपनी भूल का एहसास हो चुका था। उसने कृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, “सखा, अपनी इस अपराधी सखी को क्षमा कर दे। मुझे आप पर अपने आप से अधिक विश्वास है। आज मन कुछ चंचल हो उठा था, इसलिए शायद बहक गई। मुझे सही समझ देने के लिए आपका धन्यवाद नहीं करूंगी, क्योंकि आपकी सखी होने के नाते आपका कर्तव्य सिर्फ मेरी लाज बचाना ही नहीं, मुझे सही मार्गदर्शन देना भी है। आपके कहे अनुसार मैं सही समय की प्रतीक्षा करूंगी।”
कृष्ण के अधरों पर अभी भी मुस्कान तैर रही थी, एवं द्रोपदी आने वाले पुरुष प्रधान समाज एवं नारी मुक्ति के युद्ध की कल्पना करने में मग्न थी। उसे पता था की इस युद्ध का समय अब जल्द ही आने वाला है। यदि वह समय जल्द ना आने वाला होता, तो सखा उसे अभी इस आने वाले युद्ध के बारे में ना बताते। आज की नारियों पर हो रहे अत्याचार से उसके मन में दुख तो था, पर जल्द ही आने वाले युद्ध एवं उससे परिणामस्वरूप नारी के मुक्त जीवन की खुशी भी थी। उधर कृष्ण अपनी सखी को कल्पना में खोये देख कर मंद मंद मुसकुरा रहे थे।
विनय पाण्डेय (४ जनवरी २०१७)
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