आज सुबह की डाक से मिले पत्र ने मुझे चौंका दिया। पुरानी यादें ताज़ा हो गई। मानस पटल पर चल-चित्र कि भाँति मेरे नागपुर में गुज़ारे दिन सामने आने लगे।
पच्चीस वर्ष पूर्व की वह सुबह जब चलती ट्रेन में मेरी उससे मुलाकात हुई। मेरी नई नई नौकरी लगी थी, और मैं कंपनी के काम से कुछ दिनों के लिए नागपुर जा रहा था। वह ट्रेन में बिलासपुर से नागपुर जाने के लिए चढ़ी थी। अचानक की हम दोनो में बातों का सिलसिला चल पड़ा और नागपुर तक का रास्ता बात करते करते ही कटा। हम नागपुर स्टेशन पर एक दूसरे का सामान लेकर इस तरह उतरे जैसे दोनो साथ साथ आए हो। मैं नागपुर पहली बार आया था, वह नागपुर में पढ़ती थी और उसे अपने होस्टल जाना था। उसने मुझे एक होटल तक पहुँचाया और अपने होस्टल चली गयी। जाते वक़्त फिर मिलने का आश्वासन था। मुझे आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता हो रही थी। अपनी किस्मत पर भरोसा नहीं कर पा रहा था।
हम रोज मिलने लगे। ऑफ़िस के बाद की मेरी हर शाम उसके साथ गुजरती थी। हम कभी अंबाझरी जाते तो कभी बर्डी में इधर उधर घूमते। कभी मेरे होटल के कमरे में बैठे बात करते। मैं नागपुर एक सप्ताह के लिए आया था पर अपनी कोशिश से मैंने उसे १५ (15) दिन करवा लिया। दसवें दिन हम दोनो एक दूसरे के काफी करीब आ चुके थे। हमने एक दूसरे से प्यार का इज़हार भी कर दिया था। इसी तरह हमने आपस की सारी हद भी तोड़ डाली। कसूर हम दोनो का था। होटल के कमरे में हमें आज़ादी मिल जाती थी। बस हम दोनों ने उस आज़ादी का गलत फ़ायदा उठा लिया।
जब मेरे वापस जाने का दिन आया तो वह बहुत रो रही थी। उसका कहना था की वो मेरे साथ जाएगी। परंतु मैं अपने घर वालों से बात किए बिना उसे साथ नहीं ले जा सकता था। अतः उसे समझा बुझाकर १५-२० (15-20) दिनों में पुनः आने का वादा कर मैं कलकत्ता रवाना हो गया।
“पापा, दादाजी बुला रहे है।“ अचानक मेरी बेटी कंचन ने आकर मेरी स्मृति सरिता से मुझे बाहर खींचा। मैं उठ कर पापा के पास गया, उन्हें कुछ कागज़ों पर मेरे हस्ताक्षर चाहिए थे। वापस आकर देखा नाश्ता लगा हुआ हे। नाश्ता करते करते मैंने वह पत्र पढ़ना शुरु किया।
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पता नहीं मैं आप को संबोधित करने का अधिकार रखती हूँ, इसलिए संबोधन के बिना ही लिख रही हूँ। मुझे शायद यह पत्र बहुत पहले लिखना चाहिए था। पर २५ (25) वर्षों के बाद हिम्मत जुटा पाई हूँ लिखने की। मुझे
आपसे कोई शिकायत नहीं हैं। शायद मेरी यही नियति थी। आपने तो मेरी कोई ख़बर भी न ली होगी। शायद आप मुझे एक सपना समझ कर भूल चुके होंगे। शायद मैं भी भूल जाती, पर ईश्वर को कुछ और ही मंज़ूर था। उसने मेरे पेट में आपका बीज डाल दिया। समाज के डर से मेरे माता-पिता ने उसे मार डालना चाहा, पर मैं अडिग रही उसे जन्म देने के लिए। पर शायद वह अभागी भी मेरी किस्मत में नहीं थी। मेरे पिता ने उसे पैदा होते ही न जाने किस अनाथालय में डाल दिया। आज तक मैं उसे देखने को तरसती हूँ। फिर मेरी ज़बरदस्ती शादी कर दी गई। मैंने अपने पति से कुछ भी नहीं छुपाया था। उन्होंने कभी मुझे ऐसा न लगने दिया कि मैं अकेली हूँ। दस वर्षों तक मेरे पति का साया मेरे ऊपर रहा। फिर वो भी छिन गया। एक एक्सीडेंट में वो मारे गए। जाते जाते वो एक निशानी अवश्य छोड़ गए थे, जो आज भी मेरे पास हैं। मेरा चाँद सा बेटा सूरज। आप भी शायद शादी कर चुके होंगे और आपका एक हँसता खेलता परिवार भी होगा। आप यह न समझिएगा कि में आपके परिवार को बर्बाद करने या आपकी दुनिया में दख़ल देने की कोशिश कर रही हूँ। मुझे सिर्फ़ एक बार आप को पत्र लिखना था, सो लिख दिया। हाँ, हिम्मत जुटाते जुटाते २५ (25) साल लग गए। शायद अब आप वहाँ रहते भी नहीं होंगे, या जो पता आपने मुझे दिया था, शायद वो भी सही ना हो। मैं अपना पत्र उसी पते पर भेज रही हूँ क्योकि मेरे पास दूसरा कोई पता नहीं हैं। मुझे अपने पत्र का उत्तर मिलने कि कोई उम्मीद भी नहीं हैं। पता नहीं मैं आप को संबोधित करने का अधिकार रखती हूँ, इसलिए संबोधन के बिना ही लिख रही हूँ। मुझे शायद यह पत्र बहुत पहले लिखना चाहिए था। पर २५ (25) वर्षों के बाद हिम्मत जुटा पाई हूँ लिखने की। मुझे
अंत में सिर्फ़ इतना ही कहूँगी कि मैंने आपको प्यार किया था। नागपुर में साथ गुज़ारे वह कुछ दिन वासना के नहीं प्यार के थे।
एक अभागी,
सुधा
नाश्ता ठंडा हो चुका था। मेरी आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी। आज २५ (25) वर्ष बाद पुराने जख़्म फिर से ताजा हो उठे थे। उनकी टीस रह रह कर दिल में चुभ रही थी। मेरी आँखों के सामने फिर २५ (25) वर्ष पुराना मंजर घूमने लगा।
मेरे कलकत्ता पहुँचते ही पता चला कि मेरी शादी पक्की हो चुकी है। मेरे पुरज़ोर विरोध के बावजूद मेरी शादी करा दी गयी। शादी कि पहली रात मैंने अपनी पत्नी को सबकुछ बता दिया। उस बेचारी ने ख़ामोशी से सब कुछ सुना और नतमस्तक होकर बोली, “आप जो फ़ैसला करेंगे, मुझे मंज़ूर है।“
पर मैं फ़ैसला करने कि स्थिति में नहीं था। ना नागपुर जा सकता था और न ही अपनी पत्नी को छोड़ सकता था। फिर कुछ महीने पश्चात मेरे एक मित्र का नागपुर तबादला हो गया। उसने जो कुछ सुधा के बारे में बताया उससे मैं तड़प कर रह गया। मैं जाता भी तो किस मुंह से जाता। फिर पता चला कि सुधा ने एक बच्ची को जन्म दिया है, जिसे अनाथालय में डाल दिया गया है। मैंने उस बच्ची को गोद ले लिया। फिर सुधा कि शादी कि ख़बर मिली। इधर अचानक मेरी पत्नी कि तबीयत खराब होने लगी। डॉक्टरों ने बताया कि उसे क्षय रोग हो गया है। शायद मैं ही ज़िम्मेवार था उसकी इस हालत के लिए। डॉक्टरों के अनुसार उसके बचने कि कोई उम्मीद नहीं थी। परंतु शायद वह बचना चाहती ही नहीं थी। जिसके पति ने शादी कि पहली रात उसे अपने पहले प्यार के बारे में यह कह कर बताया हो कि वह अभी भी उससे प्यार करता है और ये शादी उसकी मर्ज़ी के बिना हुई है, उसके मन में जीने कि ईक्षा समाप्त हो जाती है। उसने कभी भी शिकायत नहीं कि, यहाँ तक कि सुधा कि बेटी को अपनी बेटी समझ कर पाला। पर शायद अंदर कुछ दबा हुआ था, जो उसे गलाते जा रहा था। अंतिम समय तक वो मेरा साथ देती रही, बिना शिकायत किए अपना पत्नी धर्म निभाती रही। शायद मैं ही अपना पति धर्म ठीक से ना निभा पाया।
घर वालों ने दूसरी शादी के लिए बहुत ज़ोर दिया, पर मैंने साफ़ इंकार कर दिया। फिर सुधा के पति के मरने का समाचार मिला। उसके बाद भी मैं सुधा का सामना करने कि हिम्मत नहीं जुटा पाया। फिर मैं पूरी तरह से अपनी बेटी कि परवरिश में लग गया। कभी सुधा कि याद तो कभी अपनी पत्नी के बलिदान मुझे तड़पा देते थे। पर साथ ही अपनी कंचन को, अपने और सुधा के प्यार कि निशानी को बढ़ते हुए देखकर एक संतोष भी होता था। मैं इसी आत्मग्लानि और दुःख के बीच संतोष कर अपनी ज़िंदगी गुज़ार रहा था, कि आज इस पत्र ने आकर मानो ठहरे पानी में फेंके पत्थर का काम किया था।
“अरे पापा! आप रो रहे है?” कहती हुई कंचन अंदर आई।
विचारों के एक झंझावात से निकलते हुए मैंने फ़ैसला कर लिया कि कंचन को सबकुछ बता कर अब नागपुर जाने का समय आ गया है। इस फैसले से मुझे बहुत राहत महसूस हुई।
“नहीं बेटी, यह तो ख़ुशी के आँसू है। चलो तैयारी करो, हम नागपुर जा रहे है।“
“नागपुर? किसलिए पापा?”
“तुम्हारी मम्मी को लाने।“
आँखों में ख़ुशी कि चमक एवं हृदय में उमंग लिए मैं कंचन को सबकुछ बताने लगा।
विनय पाण्डेय
१३ जुलाई १९९७ (13 July 1997)
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