वह एक बहुत शातिर ठग था। अपनी ठगी से उसने बहुत घन-संपत्ति इकट्ठा कर ली थी। परंतु आखिरी ठगी के बिगड़ जाने की वजह से उसे अपना शहर छोड़ कर भागना पड़ा। वह एक दूसरे शहर में बिना पैसे और रहने की जगह के, मारा मारा फिर रहा था। एक दिन उसने एक सेठ को ग़रीबों में खाना बांटते हुए देखा। उसका ठगी वाला दिमाग फिर सक्रिय हो चला, और वह उन ग़रीबों से हटकर एक तरफ निर्लिप्त होकर बैठ गया। सेठ ने पहले तो उसे नज़रअंदाज़ किया, फिर जब सभी ग़रीबों में बांटने के पश्चात भी खाना बचा रह गया, तो उसके पास जाकर उसे देने की कोशिश की। मैले से एक चद्दर में अपने को लपेटे, उलझे बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी में बैठा, सेठ को खाना देते देखकर उसने कहा, “तू बहुत गरीब है। और तुझे जो चाहिए वह सिर्फ मुट्ठी भर अनाज दान करने से नहीं मिलेगा। अपने पापों का प्रायश्चित्त कर, उसी में भलाई है।”
सेठ अवाक रह गया। उसे यह समझ में नहीं आ रहा था, कि इस अजीब से दिखने वाले व्यक्ति को यह कैसे पता है कि वह किसी कारण से दान कर रहा है, और उसकी कोई अतृप्त इच्छा भी है। उसे लगा कि यह कोई बहुत पहुंचे हुए महात्मा है, जो उसके भाग्य से यहाँ उसे मिल गए है। उसने हाथ जोड़े, और उन्हें अपने घर चलने का निमंत्रण दिया। ठग उनके साथ चलने को तैयार हो गया। घर पहुँच कर सेठ ने महात्मा के लिए अच्छा सा रहने का बंदोबस्त कर दिया। सेठ डर रहा था, कि अधिक पूछताछ करने पर साधु नाराज़ होकर चले ना जाये।
ठग भी अपने हुनर में माहिर था। उसे पता था कि उसकी वेषभूषा कि वजह से सेठ फंसा है, इसलिए उसने नहा धोकर भी वही मैले कपड़े पहने, और दाढ़ी – बाल बिखरे ही रहने दिये। जब सेठ ने उसे देखा तो नम्रता पूर्वक कहा, “आपके लिए नए कपड़े रखे है, आप उन्हें क्यों नहीं पहन लेते?”
“क्या नए कपड़े गंदे नहीं होंगे? और क्या ऊपरी सफाई करने से मन की गंदगी दूर हो जाएगी?” ठग ने शांति पूर्वक अपना जाल बिछाना शुरू कर दिया था।
धीरे धीरे उसने सेठ से ही उसकी परेशानी और दान करने की वजह निकाल की। सेठ को पता ही नहीं चला की साधु महात्मा को अपने से कुछ नहीं पता था, और उसने ही सब कुछ बताया है। सेठ यही विश्वास करता रहा की साधु को स्वयं ही सब कुछ पता है। सेठ की इकलौती संतान बहुत बीमार थी, और डॉक्टर के अनुसार बचने की आशा बहुत कम थी। अब ठग को अपना अगला कदम उठाना था।
“सेठ, याद कर तूने किस बच्चे को नुकसान पहुंचाया है? या फिर मैं ऐसे कहूँ की किस किस बच्चे को?”
“महात्मा, मैंने कभी किसी बच्चे को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया! फिर मेरे साथ ही ऐसा क्यो?”
“कभी कभी अनजाने में भी लोग ऐसा पाप कर बैठते है। क्या कभी किसी ने तुमसे मदद मांगते वक़्त अपने बच्चों की दुहाई नहीं दी? क्या तुमने उस दुहाई को नज़रअंदाज़ नहीं किया?”
यह था ठगी का तुरुप का इक्का! एक व्यापारी के जीवन में अकसर ऐसा मौका आता है जब उसने लोगों को मदद देने से इनकार किया होता है। और उसमें कई बार लोग अपने बच्चों की दुहाई भी देते है। सेठ को अब कई ऐसे क़िस्से याद आ रहे थे, जहां उसने बच्चों के साथ अत्याचार किया था। अनजाने में ही सही, और शायद उसका मदद ना करने का निर्णय भी सही था, पर बच्चों के साथ अत्याचार तो हुआ था। सेठ महात्मा के पैरो पर गिर कर गिड़गिड़ाते हुए अपने बच्चे के जीवन की भीख मांगने लगा। यह उस ठग की जीत थी। उसे पता था की अब सेठ कुछ भी करने को तैयार हो जाएगा। और यदि डॉक्टर की दवा से बच्चा ठीक हो जाता है, तो उसकी साधुगीरी तो चल निकलेगी। उसने सेठ से उन लोगों की लिस्ट बनाने को कहा। साथ ही एक यज्ञ का आयोजन भी करवा लिया। सेठ ने अपने एक खास सेवक को साधु की सेवा एवं यज्ञ के आयोजन में लगा दिया। ठग ने साधु को एक चेतावनी भी दे डाली थी, “याद रखना सेठ, एक भी ऐसा आदमी छुटना नहीं चाहिए जिसके चलते तुम पर यह पाप लगा है। बहुत सोच समझ कर नाम लिखना। यज्ञ सिर्फ तुम्हारे बच्चे को दर्द से राहत दे सकता है, बीमारी दूर नहीं हो सकती।”
कुछ ही दिनों में यज्ञ संपन्न हुआ। सेठ ने कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। उसके सभी रिश्तेदार और साथी भी आए। ठग ने इस यज्ञ के बहाने अपने जाल को शहर के सभी नामी और धनाढ्य लोगों में फैला दिया था। यज्ञ के पश्चात एक बर्तन में राख को समेट कर कुछ मंत्र उच्चारण करके उसे सेठ को दिया, और कहा, “यह भभूत रख, और एक चुटकी सुबह शाम अपने बच्चे के मुख में डालना, उसे राहत मिलेगी। पर उसकी बीमारी को दूर भागने के लिए तुम्हारा प्रायश्चित्त करना बहुत आवश्यक है। उन सभी लोगों को ढूंढ जिनके बच्चों को तुम्हारी वजह से नुकसान पहुंचा है, और उनसे क्षमा मांगो। उनके माफ करने से ही तुम्हारा बच्चा ठीक हो पाएगा।”
ठग ने भभूत में हल्का सा नशा मिला दिया था, जिसकी वजह से बच्चे को भभूत से थोड़ी राहत मिलने लगी, अब वह हर वक़्त दर्द से कराहता नहीं था। डॉक्टर की दवाई भी चल रही थी। उधर सेठ अपने प्रायश्चित्त में लगा हुआ था। अंततः डॉक्टर की दवाई की वजह से बच्चा ठीक हो गया। सेठ की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसके लिए तो साधु महाराज भगवान की तरह आए, और उसके बच्चे को जीवन दान दिया। इसकी चर्चा पूरे शहर में होने लगी। सबसे बड़ी बात यह थी कि इस साधु ने स्वयं के लिए कुछ भी नहीं मांगा।
फिर क्या था, उस ठग कि दुकान चल निकली थी। धीरे धीरे उसके अनुयाई बढ़ते गए। उसके नाम पर एक आश्रम बन गया। धन कि कोई कमी नहीं रही। उसने अपने पिछले जीवन के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया। लोग अलग अलग कहानियाँ सुनाते थे। कोई कहता कि वह अवतार है, सीधे इसी रूप में अवतरित हुए है, तो कोई कहता कि वह कई वर्षों तक हिमालय पर तपस्या करके यहाँ आए है। अब तो बड़े बड़े राजनीतिक दलो के नेता भी उनसे आशीर्वाद लेने आने लगे थे। उनके अनुयाई सिर्फ उस शहर में नहीं, बल्कि देश विदेश हर जगह थे। उनका आश्रम अब एक बहुत बड़ी संस्था का रूप ले चुका था। कई शहरों में आश्रम कि शाखाएँ थी, और लोगों की भलाई के लिए काम कर रही थी। स्कूल, अस्पताल और ऐसे ही बहुत से जनसुखाय वाले कार्यों में यह संस्था कार्यरत थी। उस ठग का जीवन बहुत आराम के साथ व्यतीत हो रहा था। उसके पास इतना पैसा था, कि इन स्कूल और अस्पताल पर हो रहे खर्च से उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता था। पर उसे इन कार्यों कि वजह से जो सम्मान मिलता था, वह बहुत अच्छा लगता था। वह एक समझदार ठग था, इसलिए उसने किसी एक राजनीतिक दल से गठजोड़ नहीं किया, बल्कि सबसे संबंध बनाए रखे। उसने एक खास दायरा बना रखा था अपने कुछ शिष्यों का, जिन्हें हक़ीक़त पता थी, और जो उसके भौतिक सुखों का बंदोबस्त करते थे।
कई वर्षों तक ऐसे ही सब चलता रहा, और वृद्धावस्था में जब उसकी हृदय गति रुकने से मृत्यु हुई, तब उसके उन खास शिष्यों में आश्रम की सत्ता को लेकर लड़ाई शुरू हो गई। तभी एक पत्रकार ने अपने अख़बार में उस ठग के स्वयं लिखे खुलासे को छाप दिया। उस ठग ने अपने अंतिम दिनों में इस पत्रकार को अपने बारे में सब कुछ बता दिया था। स्वयं लिख कर उसने सरकार से अनुरोध किया था की उसके मरने के बाद आश्रम की संपत्ति को सरकार अपने अधिकार में लेकर धर्म रूपी धोखे और पाखंड को बंद करा दे, पर स्कूल और अस्पताल चलने दे। आश्रम के पैसों को ऐसे ही ग़रीबों की सुविधा के लिए इस्तेमाल किया जाये।
इस खुलासे के होते ही सब जगह तहलका मच गया। सरकार ने आश्रम को अपने नियंत्रण में ले लिया। सभी धार्मिक अनुष्ठान बंद कर दिये गए। लेकिन लोगों का विश्वास अपने महात्मा के स्वयं लिखे हलफ़नामा भी नहीं हिला सका। हर जगह यह बात फैल गई कि महात्मा जानते थे कि उनके पश्चात आश्रम के अधिकार को लेकर उनके शिष्य आपस में लड़ेंगे। इसलिए उन्होंने बहुत बड़ा त्याग किया, अपने ऊपर पूरा दोष लेकर, खुद को एक ठग बता दिया, ताकि उनके बाद इस आश्रम में ठगी ना होने लगे। लोगों को अपने महात्मा पर पूरा विश्वास था, और इसे कोई हिला नहीं सकता था। पर चूंकि आश्रम को सरकार को देना उनके महात्मा की इच्छा थी, भक्तों ने उसपर कोई हँगामा नहीं किया। पर जगह जगह महात्मा के मंदिर अवश्य बन गए।
सबसे बुरा हुआ उसके शिष्यों का। वह बेचारे कहीं के ना रहे। सारी जिंदगी अपने गुरु की सेवा करने के पश्चात उस गुरु ने उन्हें ही ठग लिया था। धीरे धीरे सभी शिष्य शहर से ग़ायब हो गए। शायद किसी और शहर में जाकर अपने गुरु की तरह नए सिरे से इस कहानी को शुरू करने के लिए।
- विनय कुमार पाण्डेय
२६ अगस्त २०१७
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