मैं एक पेड़ हूँ। एक सुखा हुआ पेड़। आज अपनी आख़िरी घड़ियाँ गिनता हुआ इंतज़ार कर रहा हूँ आपने आख़िरी कर्तव्य के लिए। पहले शायद कुछ रहे हो, पर अब मेरे कुछ अरमान नहीं है। परंतु जब तलक जान बाकी है, कही ना कहीं कोई जिज्ञासा या लालसा घेर ही लेती है। आज भी मेरे मन में बार बार ये विचार आता हैं, की शायद अब मेरे जीवन में सिर्फ़ कट कर अग्नि के हवाले होना बाकी है। अग्नि प्रवेश कहाँ होगा! क्या मैं किसी गरीब के घर चूल्हे में जलकर उसके परिवार को भोजन देने का माध्यम बनूँगा? या किसी निर्दयी शिकारी के शिकार को पकाने के लिए जलूँगा। शायद गरीब मजदूरो के अलाव में जलकर उन्हें कड़ाके की ठंड से बचाऊँगा, या शायद किसी धनाढ्य के घर पर आतिशदान में जलते जलते उनकी एक दूसरे के प्रति हृदय में ईष्या रखते हुए मित्रता का ढोंग देखूँगा। शायद किसी के जीवन की अंतिम यात्रा का माध्यम बनते हुए चिता में जलूँगा या एक नए युग की शुरुआत की क्रांति के प्रतिक के रूप में मशाल बनकर जलूँगा।
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