मैं एक पेड़ हूँ। एक सुखा हुआ पेड़। आज अपनी आख़िरी घड़ियाँ गिनता हुआ इंतज़ार कर रहा हूँ आपने आख़िरी कर्तव्य के लिए। पहले शायद कुछ रहे हो, पर अब मेरे कुछ अरमान नहीं है। परंतु जब तलक जान बाकी है, कही ना कहीं कोई जिज्ञासा या लालसा घेर ही लेती है। आज भी मेरे मन में बार बार ये विचार आता हैं, की शायद अब मेरे जीवन में सिर्फ़ कट कर अग्नि के हवाले होना बाकी है। अग्नि प्रवेश कहाँ होगा! क्या मैं किसी गरीब के घर चूल्हे में जलकर उसके परिवार को भोजन देने का माध्यम बनूँगा? या किसी निर्दयी शिकारी के शिकार को पकाने के लिए जलूँगा। शायद गरीब मजदूरो के अलाव में जलकर उन्हें कड़ाके की ठंड से बचाऊँगा, या शायद किसी धनाढ्य के घर पर आतिशदान में जलते जलते उनकी एक दूसरे के प्रति हृदय में ईष्या रखते हुए मित्रता का ढोंग देखूँगा। शायद किसी के जीवन की अंतिम यात्रा का माध्यम बनते हुए चिता में जलूँगा या एक नए युग की शुरुआत की क्रांति के प्रतिक के रूप में मशाल बनकर जलूँगा।
ये सभी ख्याल तो थे ही। परंतु एक ख्याल और भी था और शायद वो एक तरह से मेरा दबा हुआ अरमान था। बजाए जलने के, मैं चाहता था की कोई कलाकार मुझे एक नये रूप में परिवर्तित कर एक नया जीवन दे। एक ऐसा जीवन जिसमे कला हो, अभिमान हो, सौंदर्य हो, एक गर्व भरी मिठास हो। परंतु ऐसे कलाकार अव्वल तो मिलेंगे नहीं, और अगर मिल भी गए तो उन्हें मेरी सुखी काया क्योंकर पसंद आएगी?
आख़िरकार वो दिन आया जब मुझे अपने खूँटे से उखड़ कर बाहर की दुनिया में प्रवेश करना था। उखड़ने के बाद भी कई दिनों तक अंतर्द्वंद्व चलता रहा, कौतूहल बना रहा की क्या भविष्य है। फिर आख़िरकार एक खरीदार से दूसरे और फिर तीसरे के हाथों होता हुआ मैं एक मूर्तिकार के घर पँहुच गया। मन में उम्मीदें जाग उठी। फिर कई दिनों के पश्चात् मूर्तिकार ने मेरी सुध ली और मेरे एक नए रूप में परिवर्तित होने का सिलसिला शुरु हुआ। बहुत कष्टदायक होते हुए भी मैं सब सह गया। सिर्फ़ एक नवीन भविष्य के लिए।
जब मैंने अपना नया रूप देखा तो देखता रह गया। कला का अद्वितीय नमूना बन गया था मैं। अपनी किस्मत पर सहसा विश्वास ही नहीं हो रहा था. कुछ ही दिनों में मुझे उपहार स्वरुप एक भले मानस को दिया गया, जिन्होंने मुझे अपनी बैठक में विराजमान कर दिया. रोज अपने मालिक को लोगो से मिलते और उनकी यथा संभव मदद करते देख कर, मुझे अपने दिन याद आ गए. मैं भी तो अपने पूरे जीवन काल में आने जाने वाले लोगो को अपनी छाया और फल देकर उनकी मदद करता था. यहाँ अपने नए मालिक तो बिलकुल अपनी तरह कार्य करते हुए देख रहा था. मेरी तरह वह भी काम करके इस स्थिति में आए थे की लोगो के मदद करने हेतु सामर्थ्य हो, जैसे की मैं अपने पत्तों और फलों को उगा कर अपने आप में सामर्थ्य पैदा करता था. मेरी ही भाँति उन्हें भी जरा सा अभिमान नहीं था अपने कार्यो के लिए.
मुझे लगा की मेरे जीवन का यह भाग बहुत ही आनंद से कटेगा, परंतु शायद होनी को कुछ और ही मंज़ूर था.
एक दिन मेरे मालिक की हत्या हो गयी. हत्यारे ने मुझे इस्तेमाल करके उनका सर फोड़ दिया था. हत्यारा और कोई नहीं, बल्कि उनका सगा भतीजा था. सम्पति हेतु भतीजे ने अपने चाचा का खून कर दिया था. मेरे मालिक की कोई अपनी संतान नहीं थी. भतीजे को यह समस्या थी की चाचा अगर संपूर्ण सम्पति दान कर देंगे, तो उसके हिस्से कुछ नहीं बचेगा. मेरे लिए तो यह सारी घटनाएँ एकदम नयी और अजीब थी. फिर कुछ दिन मुझे सबूत होने की वजह से किसी गोदाम में रखा गया. फिर कोर्ट के चक्कर लगे. वहाँ यह देख कर बहुत आश्चर्य हुआ की अपराधी को कुछ भी सज़ा नहीं हुई. भतीजा ना सिर्फ़ बाइज़्ज़त बरी होकर आया, चाचा की पूरी सम्पति पर भी उसका अधिकार हो गया. मुझे भी वापस अपनी पुरानी जगह मिल गयी. बैठक में अब पहले वाली बात नहीं रही. शुरू कुछ दिनों मदद माँगने लोग आते रहे, और निराश होकर लोट गए. उपेक्षित सा एक कोने में खड़ा मैं आजकल यही सोचता रहता हूँ की इस जीवन से तो अच्छा था की मुझे जलने हेतु उपयोग किया गया होता. कम से कम जीवन के आख़िरी छड़ों में भी किसी और के कम आता एवं आपना संपूर्ण जीवन सार्थक कर जाता. यहाँ तो एक भले इंसान के खून के धब्बे अपने ऊपर लिए पश्चाताप की अग्नि में दिन रात जलना पड़ेगा.
विनय कुमार पाण्डेय
२२/११/२०१४
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