पिछले दिनों मैं शिर्डी होकर आया. मेरे माता पिता यहाँ मुंबई आए हैं. उनको साथ लेकर हम सपरिवार शिर्डी गए थे. कार्यक्रम कुछ ऐसा बनाया की शनिवार सुबह निकालेंगे, रास्ते में नाशिक पड़ता है, वहाँ पर त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर, आगे शिर्डी जाएँगे. शिर्डी में हमने रात्रि विश्राम करने का सोचा था. फिर सुबह शनि सिग्नापुर होकर वापस मुंबई आने वाले थे. उम्मीद थी की इस तरह से दर्शन भी हो जाएँगे और अधिक भाग दौड़ भी नहीं होगी.
सुबह ८ बजे के बजाय हम ९:३० पर मुंबई से निकले, क्योंकि गाड़ी देर से पहुँची. फ़ोन करने पर पता चला की चालक रात को वापस आया था और सुबह जल्दी उठ नहीं पाया. खैर, अभी भी हमें लग रहा था की अधिक देर नहीं हुई है. त्र्यंबकेश्वर पहुँच कर हमने २०० रुपए प्रति व्यक्ति दान वाले उत्तर दिशा के द्वार से प्रवेश किया. वह द्वार जल्दी दर्शन कराने वाला था. परंतु वहाँ पर भी लगभग २ घंटे कतार में घूम घूम कर दर्शन हुआ. बाहर आकर पता चला की अगर पूर्व द्वार से बिना दान दिए मुफ्त जाते तो ३-४ घंटे लगते थे. दान मैंने अपनी स्वेच्छा से दिया था, परंतु उसमें एक स्वार्थ निहित था. स्वार्थ था अपने माता पिता को बिना अधिक तकलीफ़ दिए दर्शन कराने का. परंतु ईश्वर की कुछ और ही इच्छा थी, सो दर्शन तो हो गए, परंतु हम सभी बहुत थक चुके थे. मुंबई से नाशिक तक की ४ घंटे की यात्रा और फिर २ घंटे के कतार के पश्चात दर्शन. हम फिर आगे बढ़े, शिर्डी की ओर.
शाम ढल रही थी, धीरे धीरे प्रकाश का स्थान आकाश की लालिमा और फिर अंधकार ने ले लिया. सफ़र की थकावट और देर की वजह से हमारा मनोबल पहले ही टूट चूका था. लग नहीं रहा था की हम लोग शिर्डी समय पर पहुँच पाएँगे दर्शन के लिए. हमने सुना था की सुबह के समय बहुत अधिक कतार होती है दर्शन के लिए, फिर रविवार होने की वजह से और अधिक लोग आएँगे. जब आपको आगे रास्ता नहीं दीखता तो आप ईश्वर पर छोड़ देते है. हमारी भी वही स्थिति थी, कि ईश्वर अगर चाहेंगे तो दर्शन होंगे.
शिर्डी पहुँचते पहुँचते रात्रि के ९:३० बज गए. चालक ने कहा की होटल बाद में जाएँगे, आप पहले दर्शन की चेष्टा कर लो. हमेशा की तरह मैं फिर से कुछ पास या जुगाड ढूँढने लगा, जिससे बिना लंबी कतार में लगे दर्शन हो सके. परंतु कुछ नहीं मिला. हम लोग इतने थके हुए थे की दर्शन हेतु कतार में लगने की हिम्मत नहीं हो रही थी. एक घंटे की जद्दोजहद के पश्चात हम खड़े सोच रहे थे की अब होटल चलते है, कल सुबह ४:३० पर आकर कतार में लग दर्शन की चेष्टा करेंगे. रात को सोने से शायद थकान कम हो जाएगी और कतार में लगने की हिम्मत भी जुटा लेंगे. जैसे ही कम लोग वापस जाने किए लिए मुड़े, एक पुलिस वाला हमारे पास आया और कहा, "आप लोग यहाँ खड़े क्यों है? २ नंबर गेट से तुरंत अंदर जाकर दर्शन कीजिए. जल्दी ही दर्शन बंद हो जाएँगे. जल्दी जाए."
यह सुनकर पता नहीं क्यों हमारे अंदर स्फूर्ति सी आ गयी और हम तुरंत २ नंबर गेट की तरफ चल दिए. वहाँ पहुँच कर देखा की बहुत कम लोग थे दर्शन करने वाले. हम अंदर गए, और सिर्फ़ १० मिनटों में दर्शन कर के बाहर आ गए. यह १० मिनट भी गेट से अंदर जाकर मंदिर के प्रांगण तक पहुँचाने में लगे. हमें कही रुकना नहीं पड़ा, बस चलते गए और बहुत अच्छे तरीके से दर्शन हो गया.
बाहर आकर हम चमत्कृत थे की जहाँ इतनी लंबी कतार लगती है, हमें इतनी आसानी से दर्शन कैसे हो गया. और वह पुलिस वाला कौन था जिसने हमें बिना जान पहचान या बातचीत के, स्वयं आकर अंदर जाने की सलाह दी. श्रद्धा का हमारे जीवन में बहुत महत्व होता है. ईश्वर की श्रद्धा मेरे मन में भी बहुत है, परंतु मेरे माता पिता मेरे लिए ईश्वर से बढ़कर है. शिर्डी में बाबा के द्वार पर पहुँच कर भी जब हम भीतर नहीं जा रहे थे, और मैं इधर उधर दौड़ रहा था कोई रास्ता ढूँढने हेतु, जिससे मेरे माता पिता आराम से दर्शन कर सके, तब शायद साई बाबा ने स्वयं हमारा मार्गदर्शन किया उस पुलिस वाले के रूप में आकर. शायद लोग इसे चमत्कार ना मानकर एक संयोग का नाम दे, परंतु मेरे लिए तो वह स्वयं साई बाबा ही थे. वैसे भी कहा जाता है की जब बाबा की इच्छा होती है तभी हम उनके दर्शन के लिए जा पाते है. उस दिन बाबा की इच्छा थी हमें दर्शन देने की, सो उन्होंने हमें अपने पास बुला लिया. इससे पहले जब मैं नागपुर में रहता था, तब २ बार कार्यक्रम बना कर भी शिर्डी नहीं जा पाया था. हर बार आख़िरी समय पर कुछ न कुछ ऐसा कार्य आन पड़ता, की हमें अपना शिर्डी का कार्यक्रम स्थगित करना पड़ता. अब समझ में आ गया है की बाबा की मर्ज़ी नहीं थी, इसलिए तब ना जा पाया, और अब जब बाबा की मर्ज़ी थी, तो उनके द्वार से वापस जाते जाते उन्होंने बुला लिया.
यहाँ मैं यह भी स्पष्ट कर दूँ, की अगर हम रात को दर्शन नहीं कर पाए होते, तो शायद सुबह दर्शन नहीं हो पाता. सुबह मंदिर में कतार इतनी लंबी थी, की हम सोच भी नहीं सकते थे दर्शन के बारे में. माता पिता की थकावट की वजह से ही हमने सिग्नापुर ना जाने का फ़ैसला लिया और अगले दिन मुंबई के लिए रवाना हो गए. शायद उसी तरह माता पिता की थकावट देख हम बिना बाबा के दर्शन ही वापस आ जाते.
मैं अंधविश्वासी नहीं हूँ, और ना ही किसी प्रकार के कर्म कांड में विश्वास रखता हूँ. मैं बस इतना जनता हु, की अगर हम धर्म का पालन करते हुए अपना जीवन व्यतीत करते है, तो ईश्वर हमेशा हमारा साथ देता है. उसके लिए मंदिर जाकर पूजा करने की आवश्यकता नहीं है. मंदिरों में दर्शन अपने माता पिता को कराने की चेष्टा करता हु, उनके विश्वास और आकांक्षा अनुसार. परंतु साई बाबा के इस चमत्कार भरे मार्गदर्शन ने मुझे एक नए अहसास से परिचित करवाया. एक ऐसा अहसास की साई बाबा मेरे साथ है, और जीवन के पथ पर मेरा मार्गदर्शन करते रहेंगे. अब इस विश्वास के साथ विषम से विषम परिस्थितियों से भी निपटने के लिए एक नयी उर्जा मिल गयी है.
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