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मुझे होली अच्छी लगती हैं (Hindi Story by me)

मुझे होली अच्छी लगती है। आज होलिका दहन है। मुझे तो ये भी नहीं पता की होलिका दहन क्या होता है। बस मुंबई की एक सोसाइटी से दूसरी सोसाइटी घूम घूम कर प्रसाद से पेट भरने में लगा हूँ। लोगो को कहते हुए सुना की ये जो आग लगा कर उसकी पूजा करते है, उसे होलिका दहन कहते है। अधिकतर लोग तो आजकल शायद अँग्रेज़ी में ही आपस में बातें करते है, इसलिए कुछ समझ नहीं आता। परंतु अभी भी कुछ लोग है, जो शायद पूरी तरह से अँग्रेज़ी ना बोल पाने की वजह से हिंदी में बातें करते है। वो लोग भी बीच बीच में कुछ शब्द अँग्रेज़ी के जोड़ ही देते है। उनकी आधी अधूरी बातों से मुझे होलिका दहन के बारे में पता चला। नहीं तो मुझ जैसे बस्ती में पैदा हुए और 10 वर्षों से वहाँ की गलियों में कभी खेलते कभी छोटा मोटा काम करते और कभी भीख माँगते गुजरी ज़िंदगी में ऐसी बातों का पता चलना मुश्किल होता है। कभी स्कूल नहीं गया, इसलिए सीखी है तो सिर्फ़ तरह तरह की गालियाँ। जबसे होश सम्हाला है, हर किसी को बिना वजह मेरी माँ बहन से रिश्ता जोड़ते हुए सुना है। लोगो के मुंह से अपना नाम कम सुना है, माँ बहन वाले अलंकार अधिक।

मैं भी कहा अतीत में भटक गया। जैसा की मैंने लोगो से सुना, होलिका दहन होली के एक दिन पहले मनाते है। इसमें कुछ लकड़ियों का एक घेरा बनाते है, और फिर कुछ महिलाएँ उसकी पूजा करती है। फिर उसमें आग लगा दी जाती है। इस आग में सभी के अंदर की बुराइयाँ जल कर वातावरण में उठ रहे धुएँ में विलीन हो जाती है। क्या बड़े क्या बच्चे सब एक दूसरे के गले मिलते है। सुना है की लोग आपस के सारे मतभेद भुला कर एक दूसरे के प्रति सिर्फ़ प्यार रखते है अपने हृदय में। शायद इसीलिए उसदिन मुझे कोई भगाता नहीं है। बल्कि बुला बुला कर प्रसाद दिया जाता है। मैं घूम घूम कर पेट भर प्रसाद खाता फिर रहा था। आज किसी के अचानक से चिल्लाते हुए मेरी माँ बहन से रिश्ता जोड़ने का डर नहीं था।



फिर आई होली की सुबह। मेरे मुहल्ले के किशोरों ने सुबह सुबह मुझपर अपना जलवा दिखा दिया था। मुझसे बड़े होने के साथ साथ ज्यादा ताकतवर होने का भी उनको फ़ायदा था। मैं सर से पाँव तक काले पीले रंगों में सराबोर था। स्वयं को आईने में देखकर मेरी बरस्बर हंसी निकल पड़ी। फिर मैंने भी होली खेलने बाहर निकल पड़ा। आज मैंने अपने मुहल्ले से बाहर निकल सोसाइटी के बच्चों के साथ होली खेलने का निश्चय किया था। आजतक जिस उदंडता का विचार भी कभी मेरे मन में ना आया हो, आज वो करने का साहस सिर्फ़ कल रात के सबके बर्ताव की वजह से हुआ था। एक और वजह थी कि वहाँ के बच्चों के पास बहुत अच्छी अच्छी पिचकारियाँ और ढेरों रंग थे। हमारे मुहल्ले में तो बस रंग और कीचड़ मिला कर होली होती है।



मैं ऊपर से नीचे तक रँगा हुआ जब सोसाइटी के बच्चों के दल में चुपचाप शामिल हुआ, तो किसी ने मुझे गालियाँ नहीं दी। किसी ने भगाया नहीं। सबने मेरे पहले से रंगे चेहरे पर और रंग लगाए। कुछ ने तो मुझे रंग भी दिए। गाना चल रहा था, लोग झूम रहे थे। वही एक टेबल पर कुछ खाने का सामान रखा हुआ था। बच्चों के साथ मैंने भी खाया। किसी ने मुझे दुत्कारा नहीं। किसी ने मुझे वहाँ से जाने को नहीं कहा। बल्कि जब मैं हिचकिचाते हुए एक लड्डू उठाने की कोशिश कर रहा था, तो एक महिला ने मुझे दो लड्डू दे दिए। मैंने कृतज्ञ भाव से उन्हें देखा। पर शायद उन्होंने मुझे अपने सोसाइटी का ही कोई लड़का समझा था। इसलिए मेरे रंगे हुए चेहरे के कृतज्ञता वाले भाव वो नहीं देख पाई। शायद वहाँ के बच्चे उस खाने पर अपना अधिकार समझते हुए कृतज्ञता प्रदर्शित नहीं करते थे। पर मुझे तो मानो वर्षों बाद लड्डू खाने को मिल रहा था, अतः कृतज्ञ तो होना ही था।

फिर वहाँ से दूसरी सोसाइटी, फिर तीसरी। कब दोपहर हुई और मम्मियाँ अपने अपने बच्चों को नहलाने ले गयी पता ही ना चला। मैं भी उछलता कूदता अपने घर की ओर चल पड़ा। मुझे पता है की हमारे घर में होली हो या दिवाली, सिर्फ़ मनहूसियत छाई रहती है। माँ घर घर झाड़ू पोंछे का काम करती है ताकि दो पैसों का कुछ इंतजाम कर सके। पिता को तो मैंने कभी देखा तक नहीं। शायद मर गए या भाग गए। जब दो वक़्त की रोटी का जुगाड़ मुश्किल से हो रहा हो, तब होली, पिचकारी ओर रंगों के बारे में सोचता कौन है।

ऐसा नहीं है की आज की तरह कल और आने वाले दिनों में भी मैं सोसाइटी के बच्चों के साथ खेल पाऊँगा। कल से तो मुझे मुख्य द्वार पर खड़ा दरवान ही घुसने नहीं देगा। ठीक भी तो है। सोसाइटी के अच्छे परिवारों से संबंधित बुद्धिमान और पढ़े लिखे बच्चों के बीच मेरे जैसे अनपढ़ गवार और बस्ती में रहने वाले बच्चे का क्या मेल। होली वाले दिन तो किसीको भी पहचानना मुश्किल होता है। इसलिए सभी धोखा खा गए। पर कल से मैं मुख्य द्वार के अंदर भी ना जा पाऊँगा। कल भी वही लोग होंगे, वही बच्चे होंगे। कल भी लोग एक दूसरे को देखकर अँग्रेज़ी या हिंदी मराठी में नमस्ते करेंगे, हाल चाल पूछेंगे। भले ही आज की तरह गले ना मिले, पर अपने अंदर की भावनाओं या दुर्भावनाओं को चेहरे पर ना आने देंगे। आख़िर सभ्य समाज के लोग है। सिर्फ़ मुझे देखकर उन्हें अपने बच्चों के बिगड़ने का डर सताने लगेगा। फिर शायद स्वयं या उनके कहने पर कोई दरवान या माली मुझे भगाते हुए मेरी माँ बहन के साथ अपना संबंध जोड़ने वाले अलंकारों को खुल कर प्रयोग करेगा।
शायद ये जो होलिका दहन है, वो पूरी तरह से ऊँच नीच और भेद भाव को नष्ट नहीं कर पाती। उसका असर सिर्फ़ एक दिन के लिए होता है। जैसे ही होली समाप्त हुई, सभी अपने असली रूप में आ जाते है। काश ये होलिका दहन रोज होता। काश लोग होली के एक दिन की तरह रोज बिना भेदभाव के सबके साथ समान व्यवहार करते। काश की मुझे रोज पेट भर प्रसाद खाने को मिलता।
लेकिन मुझे पता है, ये नहीं हो सकता। अब होली एक वर्ष के पश्चात आएगी। तबतक मुझे अपनी ज़िंदगी वैसे ही व्यतीत करनी होगी जैसे पिछले 10 वर्षों से कर रहा हूँ। कभी कुछ काम मिल जाना, कभी भीख माँगना तो कभी भूखे सो जाना। पर मुझे इसकी चिंता नहीं थी, क्योंकि ये होली के दो दिन बहुत अच्छे व्यतीत हुए थे। अब इंतज़ार था तो अगली होली का। क्योंकि मुझे होली अच्छी लगती है।

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